पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/६४६

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योगवाशिष्ठ।

स्वरूप और सबका भरण और पोषण करनेवाला और वैराट्राज होकर स्थित भया हूँ। त्रिलोकी का राज्य मुझको अपूर्व प्राप्त हुआ है जो शास्त्रों और देवों के दल बिना निरक्षित विस्तृत है। बड़ा आश्चर्य है कि मैं इतना बड़ा विस्तृतरूप हूँ और अपने आपमें नहीं समाता, जैसे कल्पान्तर के वायु से उछला समुद्र आपमें नहीं समाता। मैं अनन्तरूप आत्मा अपनी इच्छा से आप प्रकाशता हूँ। जैसे क्षीरसमुद्र अपनी उज्ज्वलता से शोभता है तैसे ही मैं भी अपने आपसे शोभता हूँ। यह जगतरूपी मटकी महाअल्परूप है-जैसे बिल में हाथी नहीं समाता तैसे ही मैं अपने आपमें विस्तृत रूप से जगत् में नहीं समाता। मैं कोटि ब्रह्माण्ड में व्यापक हूँ और ब्रह्मलोक से परे जो तत्त्वों का अन्त आता है उसके भी परे मैं अनन्तरूप हूँ। यह मैं हूँ, यह मैं नहीं, यह निर्बलता मेरे तुच्छ रूप है। मैं तो आदि अन्त से रहित चैतन्य आकाश हूँ और मेरे में परिच्छिन्नता मिथ्या भासती थी मैं, तू, यह, वह आदिक मिथ्या भ्रम है। देह क्या, पर क्या और अपर क्या, मैं तो सर्वव्यापक चैतन्यतत्त्व हूँ। मेरे पितामह बड़े नीचबुद्धि थे जो ऐसे ऐश्वर्य को त्यागकर तुच्छ ऐश्वर्य मैं खचित हुए थे। कहाँ यह महादृष्टि सर्व का कर्ता ब्रह्मवपु और कहाँ वह संसारभ्रम का राजा अनित्यरूप सुख भोग दुःखदायक। अनन्त सुख, परम उपशम स्वभाव, शुद्ध चैतन्य दृष्टि अब मेरे में हुई है। सब भाव पदार्थों में चैत्य से रहित मैं चैतन्य आत्मा स्थित हूँ। अब मुझको नमस्कार है, क्योंकि मेरी जय हुई है और जीर्णरूप संसारभ्रम से निकला हूँ। इससे मेरी जीत हुई है पाने योग्य आत्मपद पाया है और जीवन सार्थक हुआ है। ऐसा उत्तम समराज चक्रवर्ती में भी नहीं मिलता। ये जीव निरन्तर बोध को त्यागकर दुःखरूपी कार्यों में रमते हैं। काष्ठ जल और मृत्तिका से संयुक्त जो पृथ्वी है उसको पाकर जो भुलायमान हुए हैं उनको धिक्काल है; वे कीट हैं। यह द्रव्य ऐश्वर्य अविद्यारूप हैं, अविद्या से उपजते हैं और विद्यारूप इनका बढ़ना है। इनमें क्या गुण है जिस निमित्त यत्न करते हैं? इस जगतरूपी मढ़ी में कई वर्ष हिरण्यकशिपु ने राजसुख भोगा परन्तु उपशम जो शान्तिरूप है उसको न प्राप्त हुआ। उसने एक जगत्