पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/६४७

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उपशम प्रकरण।

का राज किया है परन्तु सौ जगतों का राजसुख हो तो भी अनास्वाद है इससे वह जो समतारूप आत्मानन्द है सो नहीं प्राप्त होता। जब उस आत्मानन्द के स्वाद का यत्न हो तब प्राप्त हो, अन्यथा नहीं होता। जिस पुरुष को बड़े ऐश्वर्य और इन्द्रियों के सुख प्राप्त हुए हैं पर समता-सुख से रहित है तो जानिये कि उसको कुछ ऐश्वर्य और सुख नहीं मिला और जिनको कुछ ऐश्वर्य और सुख नहीं प्राप्त हुआ पर समता सुख संयुक्त हैं उनको सब कुछ प्राप्त हुआ जानिये। वे परम अमृत से संपन्न हैं और अखण्डित सुख जो आत्मा है उस परमसुख को प्राप्त हुए हैं और आनन्दरूप हैं। जो अखण्ड पद को त्यागकर परिच्छिन्नता को प्राप्त है वह मूढ़ है और जो पण्डित और ज्ञानवान् है वह परिच्छिन्नता में प्रीति नहीं करता। जैसे ऊँट दूसरे पदार्थों को त्यागकर कणटकों के पास धावता है और दूसरा पशु नहीं जाता तैसे ही मूढ़ बिना ऐसे कौन हैं जो आत्मसुख को त्यागकर जले हुए राजसुख में रमै और अमृत को त्यागकर नीम का पान करे। मेरे पितामह और जो बड़े सब मूढ़ हुए हैं वे इस परम अमृतरूप दृष्टि को त्यागकर राजकण्टक में प्रीतिमान् हुए हैं। कहाँ फूल फलादिक से संयुक्त नन्दनवन की भूमिका और कहाँ जले हुए मरुस्थल की भूमिका। तैसे ही कहाँ यह शान्तरूप बोधदृष्टि और कहाँ भोगों में आत्मबुद्धि। इससे ऐसा पदार्थ त्रिलोकी में कोई नहीं जिसकी मैं इच्छा करूँ। सब चैतन्यस्वरूप हैं और अनुभव कर्त्ता चैतन्यतत्त्व स्वच्छसम भाव और निर्विकार, सर्वदा, सर्व में सर्व ओर स्थित है। यह जैसे है तैसा पाया जाता है-ज्ञानवान् को प्रत्यक्ष है। सूर्य में प्रकाश चन्द्रमा में अमृत स्रवन, ब्रह्मा में महत्, इन्द्र में त्रिलोकपालन, विष्णुजी में सब ओर से पूर्ण लक्ष्मीशक्ति है, शीघ्र मननकर्त्ता शक्ति मन की है, बलवान् शक्ति पवन में, दाहक अग्नि में, रसशक्ति जल में है और मौन से महातम की सिद्धता शक्ति और बृहस्पति में विद्या, देवताओं में विमानों पर आरूढ़ होकर आकाशमार्ग गमन करने की शक्ति है। पर्वतों में स्थिरता, वसन्त ऋतु में पुष्प, सब काल मेघों की शान्तशक्ति, यक्षों में ममत्वशक्ति, आकाश में निर्लेपता, बरफ में शीतलता, ज्येष्ठ आषाढ़ में तप्तता इत्यादिक देश,