पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/६४८

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योगवाशिष्ठ।

काल, क्रियारूप नाना प्रकार के आकार विकार जो त्रिकाल के उदर में स्थित हैं सो सर्वशक्ति, स्वच्छ, निर्विकार कलना रूप कलङ्क से रहित चैतन्य की है सो इस प्रकार हो भासती है और वही आत्मतत्त्व सब पदार्थ जाति में व्यापक हुआ है। जैसे सूर्य का प्रकाश सब ओर से समान उदय होता है तैसे ही वह सर्व देश पदार्थों का भण्डार और सर्व का आश्रयभूत है, त्रिकाल उसी में कल्पितरूप होते हैं। जैसे अनुभव उसमें होता है तैसा ही तत्काल हो भासता है। जैसे जैसे चैतन्यतत्त्व में देश, काल और क्रिया द्रव्य का फुरना होता है तैसा ही तैसा भासता है। आत्मा में त्रिकालों की सम प्रतिभा फुरी है, उसमें फिर अनन्तकाल की प्रतिभा हुई है और शुद्ध चैतन्यतत्त्व सर्व ओर से पूर्ण है। त्रैकालिक दृश्यसंयुक्त भासता है तो भी चैतन्यतत्त्व शेष रहता है और इसी को त्रिकाल का ज्ञान होता है। मधुर, कटुक आदिक भिन्न भिन्न रसों में एक समता भासती है। जैसे मधुरता पान करनेवाले जीवों को मधुरता भासती है और को नहीं भासती तैसे ही जो संकल्पकलना है सबको भोगना है। सूक्ष्म चैतन्यसत्तास्वरूप सब पदार्थों का अधिष्ठान है उसमे अनागत होकर द्वैत जगत् भासता है। और नाना प्रकार की जो पदार्थ लक्ष्मी है वह अत्यन्त दुःख को प्राप्त करती है। जब त्रिकाल का अनुभव होता है तब सबही सम भासता है। भाव पदार्थों में जो पदार्थ हैं वे ईश्वर के हैं, उन भाव पदार्थों को त्यागकर भाव की भावना करने से दुःख सब नष्ट हो जाते हैं और संतुष्टता प्राप्त होती है इससे त्रिकाल को मत देखो, यह बन्धनरूप है। त्रिकाल से रहित जो चैतन्यतत्त्व है उस के देखने से विभाग कल्पना काल का अभाव हो जाता है और एक सम आत्मा शेष रहता है जिसको वाणी वश कर नहीं सकती और जो सत्य की नाई निरन्तर स्थिर है उसकी प्राप्ति होती है। अनामय सिद्धान्त शून्यता की नाई स्थित होता है निष्किञ्चन आत्माब्रह्म होता है अथवा सर्वरूप परम उपशम में लीन होता है और जिसका अन्तःकरण मलीन है और संकल्प में स्थित है उसको ज्यों का त्यों नहीं भासता-जगत् भासता है और जिसकी इच्छा नष्ट हुई है और परमपद का अभ्यास करता है उसको आत्मतत्त्व भासता है जो किसी जगत् के पदार्थ की वाञ्छा