पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/६४९

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उपशम प्रकरण।

करता है और हेयोपादेय फांसी से बांधा है वह परमपद नहीं पा सकता जैसे पेट से बांधा पक्षी आकाशमार्ग में नहीं उड़ सकता। जो पुरुष संकल्पकलना संयुक्त है वह मोहरूपी जाल में गिर पड़ता है- जैसे नेत्रों बिना मनुष्य गिर पड़ता है। संकल्प कलनाजाल से जिनका चित्त वेष्टित है वह विषयरूपीगढ़े में गिरा है और अच्युतपदवी को प्राप्त नहीं होता। मेरे पितामह कई दिन पृथ्वी में फुर फुर के लीन हो गये हैं वे बालकवत् नीच थे। जैसे गढ़े में मच्छर लीन हो जाते हैं तैसे ही अज्ञान से वे परमत्त्व को न जानते थे। भोगों की बाञ्छा जो दुःखरूप है अज्ञानी करते हैं और उससे भाव अभावरूप गढ़ और अन्धकूप में नष्ट होते हैं। और इच्छा और द्वेष से जो उठा है उसके बान्धयमान हुए हैं। जैसे पृथ्वी में कीट मग्न होते हैं वे जीव उनके तुल्य हैं और जिनकी मृगतृष्णारूप जगत् के पदार्थों में ग्रहण त्याग की बुद्धि शान्त हुई है वे पुरुष जीते हैं, और सब नीच मृतकरूप हैं कहाँ निर्मल और अविच्छिन्नरूप चैतन्यचन्दमावत् शीतलता और कहाँ उष्ण- काल कलङ्क संयुक्त चित्त की आस्था। अब मेरे मात्मा को नमस्कार है जो अविच्छिन्न प्रकाशता है और प्रकाश और तम दोनों का प्रकाशरूप है। हे चिदात्मा देव! मुझको तू चिरकाल से प्राप्त होकर परमानन्द हुआ है जो विकल्परूपी समुद्र से मेरा उद्धार किया है। जो तू है, वह मैं हूँ और जो मैं हूँ सो तू है तुझको नमस्कार है। संकल्प विकल्प कलना के नष्ट हुए अनन्तशिव आत्मतत्त्व का चन्द्रमा सदा निर्मल और उदितरूप है।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे उपशमप्रकरणे प्रह्लादोपदेशो नाम
चतुरस्त्रिंशत्तमस्सर्गः ॥ ३४ ॥

प्रह्लाद बोले कि जिनका नाम 'ॐ' है वह विकार से रहित ब्रह्म मैं हूँ। जो कुछ जगत् है वह सब आत्मस्वरूप, सत्य-असत्य से थतीत, चैतन्यस्वरूप और सब जीवों के भीतर है। सूर्यादिक में प्रकाश वही है, अग्नि आदिक को उष्णकर्ता वही है और चन्द्रमा में शीतकर्ता वही है। अमृत का स्त्रवना आत्मा से ही है और इन्द्रियों के भोगों का भोक्ता अनुभवरूप वही है। राजा की नाई खड़ा बैठा हूँ तो मैं कभी नहीं बैठा और चलता हूँ तो कभी नहीं चलता और न व्यवहार करता हूँ। मैं सदा