पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/६५०

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योगवाशिष्ठ।

शान्तरूप कर्ता हूँ किसी से लिपायमान नहीं होता। त्रिकालों में समरूप हूँ और सर्वदा सर्व अवस्था में पदार्थों के उपजने और मिटने में सदा ज्यों का त्यों हूँ। ब्रह्मा से आदि तृणपर्यन्त सब जगत् में आत्मतत्त्व स्थित है पवन जो स्पन्दरूप है उसमें भी मैं अतिसूक्ष्म स्पन्दरूप हूँ, पर्वत स्थान जो अचल पदार्थ हैं उनसे भी मैं अचल हूँ, आकाश से भी अति निर्लेप हूँ। मन को भी आत्मा चलाता है-जैसे पत्रों को पवन चलाता है और इन्द्रियों को आत्मा फेरता है-जैसे घोड़े को सवार चलाता है। समर्थ चक्रवती राजा की नाई मैं भोग भोगता हूँ और अपने ऐश्वर्य से आप शोभता हूँ। संसारसमुद्र में जरामरणरूपी जल के पार करनेवाला आत्मा है। यह सबसे सुलभ है और अपने आपसे जाना जाता है और बान्धव की नाई प्राप्त होता है। आत्मा शरीररूपी कमलों के छिद्रों का भँवरा है और बिना खेंचे बुलाये सुलभ आ प्राप्त होता है। जो कोई अल्प भी उसको बुलाता है तो उसी क्षण वह उसके सम्मुख होता है इसमें कोई संशय और विकल्प नहीं। वह निष्कलंक और परम सम्पदावान् है और सदा स्वस्थरूप है। रसदायक पदार्थों में जैसे रस स्वाद है, पुष्पों में सुगन्ध और तिलों में तेल है तैसे ही वह देव परमात्मा देहों में स्थित है तो भी अविचार के वश से नहीं जाना जाता, जैसे चिरकाल उपरान्त आया बान्धव अपने आगे आन स्थित हो तो भी उसको नहीं पहिचाना जाता। जब विचार उदय होता है तब आत्मा परमेश्वर को जान लेता है। जैसे किसी प्रियतम बान्धव के पाने से आनन्द उदय होता है तैसे ही आत्मदेव के साक्षात्कार से परमआनन्द उदय होता है और सब बान्धवपन नष्ट हो जाता है, जितनी कुछ दुष्ट चेष्टा है उसका अभाव हो जाता है, सब ओर से बन्धन फाँस टूट जाती है, सब शत्रु क्षय हो जाते हैं और आशा चिर नहीं फुरती-जैसे पर्वत को चूहा तोड़ नहीं सकता। ऐसे देव के देखे से सब कुछ देखना होता है और सुने से सब कुछ सुनना होता है, उसके स्पर्श किये से सब जगत् का स्पर्श होता है और उसकी स्थित से सर्वजगत् स्थित भासता है। यह जो जाग्रत् है सो संसार की भोर से स्वप्न है, उसी जाग्रत् से