पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/६५२

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योगवाशिष्ठ।

मन से दुःख सुख की वासना नाश होती है सो भोगों से निवृत्त होकर सुख सम्पन्न होता है और ग्रहण करते भोगते अज्ञानी दुःख पाते हैं। यह बड़ा आश्चर्य है कि आत्मा के अज्ञान से मूढ़ दुःख पाता है। अब मैंने आत्मतत्त्व देखा है, उससे मेरा भ्रम शान्त हो गया है और कुछ भी किसी से मुझको क्षोभ नहीं अब मुझे न कुछ भोगों के ग्रहण करने की इच्छा है और न त्याग की वाञ्छा है, जो जावे सो जावे और जो प्राप्त हो सो हो, न मुझको देहादि के सुख की अपेक्षा है, न दुःख के निवृत्त की अपेक्षा है सुख दुःख आवे और जावे मैं एकरस चिदानन्दस्वरूप हूँ जिस देह में वासना करने से नाना प्रकार की वासना उपजती है वह देहभ्रम मेरा नष्ट हो गया है वह वासना नहीं फुरती। इतने कालपर्यन्त मुझको अज्ञानरूपी शत्रु ने नाश किया था अब मैंने आपको जाना है और अब इसको मैं चूर्ण करता हूँ। इस शरीररूपी वृक्ष में अहंकाररूपी पिशाच था सो मैंने परमबोधरूपी मन्त्र से दूर किया है इससे पवित्र हुआ हूँ मौर प्रफुल्लित वृक्षवत् शोभता हूँ। मोहरूपी दृष्टि मेरी शान्ति हुई है, दुःख सब नष्ट हुए हैं और विवेकरूपी धन मुझको प्राप्त हुआ है। अब मैं परम ईश्वररूप होकर स्थित हुआ हूँ। जो कुछ जानने योग्य था सो मैंने जाना है और जो कुछ देखने योग्य था वह देखा है। अब मैं उस पद को प्राप्त हुआ हूँ जिसके पाने से कुछ पाने योग्य नहीं रहता। अब मैंने आत्मतत्त्व को देखा है, विषयरूपी सर्प मुझको त्याग गया है, मोहरूपी कुहिरा नष्ट हो गया है इच्छारूपी मृगतृष्णा शान्त हो गई और राग द्वेषरूपी धूलि से रहित सब ओर से निर्मल हुआ हूँ। अब मैं उपशमरूपी वृक्ष से शीतल हुआ हूँ और सब ओर से विस्तृतरूप को प्राप्त हुआ हूँ। अब मैंने सबसे उचित परमात्म देव को ज्ञान और विचार से पाया है और प्रकट देखा हैं अधोगति का कारण जो अहंकार है उसको मैंने दूर से त्याग दिया है और अपना स्वभावरूप जो आत्मभगवान् सनातन ब्रह्म है जो अहंकार के वश विस्मरण हुआ था उसे अब चिरकाल करके देखा है। इन्द्रियरूपी गढ़े में मैं गिरा था। और रागदेषरूपी सर्प से दुःख पाकर मृत्यु को प्राप्त हुआ था। मृत्यु की भूमिका टोये बिना तृष्णारूपी