पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/६५३

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उपशम प्रकरण।

करंजुये की कुञ्जों में मैं भ्रमता रहा जहाँ कामरूपी कोयल के शब्द होते थे और जन्मरूपी कूप में दुःख पाता था। सुख पाने की आशा में डूबा वासनारूपी जाल में फँसा, दुःखरूपी दावाग्नि में जला और आशारूपी फाँसी से बँधा हुआ मैं कई बार जन्ममरण को प्राप्त हुआ था, क्योंकि अहंकार के वश हुए जन्म मृत्यु को प्राप्त होता है-जैसे रात्रि में पिशाच दिखाई दे और अधीरता को प्राप्त करे तैसे ही मुझको अहंकार ने किया था सो अब परमात्मारूप की मुझको तुमने प्रेरणा की है और अपनी शक्ति विष्णुरूप धारकर विवेक उपदेश किया और जगाया है। हे देव, ईश्वर! तुम्हारे बोध से अहंकाररूपी राक्षस नष्ट हुआ है। हे विभो! अब मैं उसको नहीं देखता जैसे दीपक से तम नहीं भासता। अहंकाररूपी जो यक्ष था और मन में जो वासना थी वह सब नष्ट हुई है। अब मैं नहीं जानता कि वे कहाँ गये-जैसे दीपक निर्वाण होता है तब नहीं जाना जाता कि प्रकाश कहाँ गया। हे ईश्वर! तुम्हारे दर्शन से मेरा अहंभाव नष्ट हुआ है। जैसे सूर्य के उदय हुए चोरभय मिट जाता है तैसे ही देहरूपी रात्रि में अहंकाररूपी पिशाच उठा था वह अब नष्ट हुआ है। और अब मैं परमस्वस्थ हुआ हूँ। जैसे वानरों से रहित वृक्ष स्वस्थ होता है तैसे ही मैं परम निर्वाण को प्राप्त हुआ हूँ। अब मैं सम और शान्त बोध में जागा और चिरपर्यन्त चोरों से जो घिरा था सो अब छूटा हूँ। अब मेरा हृदय शीतल हुआ है और आशारूपी मृगतृष्णा शान्त हो गई है। जैसे जल से पर्वत की तप्तता मिटे और वर्षा से शीतलता को प्राप्त हो तैसे ही विवेकरूपी विचार से अहंकाररूपी तप्तता दूर हो गई है। अब मोह कहाँ और दुःख कहाँ; आशारूपी स्वर्ग कहाँ और नरक कहाँ, बन्ध कहाँ और मुक्त कहाँ। अहंकार के होने से पदार्थ भासते हैं, अहंकार के गये इनका अभाव हो जाता है। जैसे मूर्ति दीवार पर लिखी जाती है आकाश पर नहीं लिखी जाती तैसे ही अहंकार संयुक्त जो चेतन है वह नहीं शोभता अहंकार से ही सुख दुःखादिक का पात्र होता है। जैसे मलीन वस्त्र पर केशर का रङ्ग नहीं शोभता तैसे ही उसमें ज्ञान नहीं शोभता जब अहंकाररूपी मेघ का प्रभाव हो तब तृष्णारूपी कुहिरा भी नहीं रहता और