पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/६५४

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योगवाशिष्ठ।

शरत्काल के आकाशवत् स्वच्छ चित्त रहता है। निरहंकाररूपी जल में प्रसन्नतारूपी कमलों से शोभता है। हे आत्मा! तुझको नमस्कार है। इन्द्रियाँरूपी तेंदुये और चित्तरूपी बड़वाग्नि, दोनों जिससे नष्ट भये हैं ऐसे आत्मारूपी समुद्रात्मा को नमस्कार है; जिससे अहंकार मेघ दूर हुआ है और दावाग्नि शान्त हुई है। ऐसे जो आत्मानन्दरूपी पर्वत हैं उस आनन्द के आश्रय मैंने विश्राम पाया है। हे देव! तुमको नमस्कार है। जिसमें आनन्दरूपी कमल प्रफुल्लित हैं और जिससे चित्तरूपी तरङ्ग शान्त हुआ है ऐसा जो मानसरोवर मैं आत्मा हूँ उसको नमस्कार है। आत्मारूपी हंस संवित्रूपी पंख हैं और हृदयरूपी कमलों से पूर्ण मानसरोवर पर विश्राम करनेवाले को नमस्कार है। कालरूपी कलना से रहित निष्कलङ्क सदा उदितरूप, सब ओर से पूर्ण और शान्त आत्मा तुझको नमस्कार है। मैं सदा उदित, शीतल हृदय कर तम दूर करता, और सर्वव्यापक हूँ, परन्तु अज्ञान से अदृष्ट हुआ था सो उस चैतन्य सूर्य को नमस्कार है। मन के मन से जो उपजे थे वह अब शान्त हुए हैं और मनको मन से और अहं को अहं से छेद के जो शेष रहे सो ही मेरी जय है। भावरूप जो दृश्य पदार्थ हैं उनको यात्मभाव से तृष्णा को तृष्णा के छेद से, अनात्मा को आत्मविचार द्वारा नष्ट किये से और ज्ञान से ज्ञेय को जाने से मैं निरहंकार पद को प्राप्त हुआ हूँ और भाव अभाव क्रिया नष्ट हो गई है। मैं अब केवल स्वस्थित हूँ और निभर्य, निरहंकार, निर्मन, निष्पन्द, शुद्धात्मा हूँ। मेरा शरीर शव की नाई स्थित है, लीला करके मैंने अहंकार को जीता है; परम उपशम को प्राप्त हुआ हूँ और परम शान्ति मुझको प्राप्त हुई है मोहरूपी बैताल और अहंकाररूपी राक्षस नष्ट हुए हैं; वासनारूपी कुत्सित भूमिका से मुक्त और विगतज्वर हुआ हूँ और तृष्णारूपी रस्सी से जो बँधा हुआ देहपिंजर था और उसमें अहंकाररूपी पक्षी फँसा था सो तृष्णारूपी रस्सी विवेकरूपी कतरनी से काटी है। अब जाना नहीं जाता कि शरीररूपी पिंजरे से महंकाररूपी पक्षी कहाँ निकल गया। अज्ञानरूपी वृक्ष में अहंकाररूपी पक्षी रहता था आत्मा के जानने से जाना नहीं जाता कि कहाँ