पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/६५५

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उपशम प्रकरण।

गया? दुराशारूपी दुर्मति ने घूसर किया था, भोगरूपी भस्म ने शुद्ध दृष्टि दूर की थी और वासना से हम मृतक हो गये थे। इतने काल से मैं चित्त की भूमिका में मिथ्या अहंकार को प्राप्त हुआ था। अब मैं आनन्दित हुआ हूँ आज ही मेरी बड़ी शोभा बढ़ी है, अहंकाररूपी महामेघ नष्ट हुआ है और उसमें तृष्णारूपी श्यामता थी वह नष्ट हुई है। अब मैं निर्मल आकाशवत् शोभता हूँ, अब मैंने आत्म भगवान् देखा है और अपने स्वरूप को प्राप्त हुआ हूँ और अनुभवरूप सदा प्राप्त है। प्रभुता के समूह के आगे अज्ञान अल्परूप है।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे उपशमप्रकरणे आत्मलाभचिन्तन-
न्नाम पञ्चत्रिंशत्तमस्सर्गः ॥ ३५ ॥

प्रह्लाद बोले, हे महात्मा पुरुष! तुझको नमस्कार है। तू सर्वपद से अतीत आत्मा चिरकाल में मुझको स्मरण आया है और तेरे मिलने से मेरा कल्याण हुआ है। हे भगवन्! तुमको देखकर सब ओर से नमस्कार करता हूँ और हृदय से तुमको आलिंगन करूँगा। त्रिलोकी में तुझसे अन्य बान्धव कोई नहीं। तू सबसे सुखदायक है और सबका तू ही संहार करता और रक्षा करता है और देने और लेनेवाला भी तू ही है। अब तू क्या करेगा और कहाँ जावेगा? तूने अपनी सत्ता से विश्व को पूर्ण किया है और विश्वरूप भी तू ही है। अब सब चोर से मैं तुझको देखता हूँ और तूही नित्यरूप सर्वत्र है। तेरे और मेरे से अनेक जन्म का अन्तर पड़ा था पर अब कल्याण हुआ जो तुझको देखा। तू अत्यन्त निकट है और परम बान्धवरूप है-तुझको नमस्कार है। तू सबका कृत- कृत्यस्वरूप कर्त्ता हर्त्ता है और संसार तेरा नृत्य है। हे नित्य, निर्मल स्वरूप! तुझको नमस्कार है। शंख, चक्र, गदा और पद्म के धारनेवाले विष्णु और अर्ध चन्द्रमा के धारनेवाले सदाशिवरूप तुझको नमस्कार है। हे सहस्रनेत्र, इन्द्र! तुझको नमस्कार है। पद्मज ब्रह्मा सब देवविद्या का सम्बन्ध तू ही है। तेरे में कुछ भेद नहीं तो तुम्हारे हमारे में भेद कैसे हो? जैसे समुद्र और तरङ्गों का संयोग अभेद है तैसे ही तेरा और मेरा संयोग अभेद है। तू ही अनन्त और विचित्ररूप है और भाव-अभावरूप जगत् के धरनेवाली नीति है-जो जगत् की मर्यादा करती है। हे द्रष्टा-