पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/६५६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
६५०
योगवाशिष्ठ।

रूप! तुझको नमस्कार है। हे सर्वज्ञ! सर्वस्वभावरूप आत्मदेव! जन्म प्रति जन्म मैं बहुत दुःखमार्ग में विचरा हूँ और तेरी माया से चिरकाल दग्ध हुआ हूँ। हे देवेश! देशलोक मैंने अनन्त देखे हैं और दृश्य द्रष्टा भी अनेक देखे हैं परन्तु किसी से तृप्त न हुआ। जगत् को जिस ओर देखूँ उसी ओर से काष्ट, पाषाण, जल, मृत्तिका, आकाश दृष्ट आता था अब तुझ बिना कुछ और दृष्ट नहीं आता अब वाञ्छा किसकी करूँ जब तुझको देखा है और उपलब्धस्वरूप को प्राप्त हुआ हूँ। तुझको नमस्कार है। नेत्रों की श्यामता में जो पुतलीरूप स्थित है और रूप को देखता है वह साक्षीभूत भीतर कैसे नहीं देखता? जो त्वचा में स्पर्श करता है और शीत उष्णादिक को जानता है ऐसा सर्व अड़्गो में व्यापक अनुभवकर्त्ता है-जैसे तिलों में तेल व्यापक होता है। उसको अनुभव कोई नहीं करता। जो शब्द को श्रवण इन्द्रिय के भीतर ग्रहण करता है उस शब्दशक्ति को जो जाननेवाली सत्ता है और जिसमें शब्दशक्ति का विचार होता है इससे रोम खड़े हो आते हैं सो सत्ता दूर कैसे हो? जो जिह्वा के अग्र में रस स्वाद को ग्रहण करता है उस रस के अनुभव करनेवाली सत्ता दूर कैसे हो? नासा में जो ग्रहणशक्ति है उसको गन्ध आती है उसको अनुभव करनेवाली अलप सत्ता है सो सम्मुख कैसे न हो? वेदवेदान्त, सप्तसिद्धान्त, पुराण और गीता से जो जानने योग्य आत्मा है उसको जब जाना तब विश्राम कैसे न हो? वह तो परावर परमात्मा पुरुष है। जिन भोगों की मैं तृष्णा करता था वह भोग विद्यमान रमणीय हैं तो भी तेरे दर्शन से रस नहीं देते। हे स्वच्छरूप निर्मल प्रकाश! तू सूर्यभाव होकर प्रकट हुआ है और तेरी सता से चन्द्रमा शीतल हुआ है, तेरी सत्ता से पृथ्वी स्थित है, सत्ता से देवता आकाशमार्ग में विचरते हैं और तेरी सत्ता से आकाश में आकाशभाव है। मेरी अहंता तेरे में तत्त्व को प्राप्त हुई है, तेरे और मेरे में भेद कुछ नहीं। तुझे और मुझे नमस्कार है। मैं सम, स्वच्छ, साक्षीरूप, निर्विकार और देश, काल पदार्थ के परिच्छेद से रहित हूँ। मन जब क्षोभ को प्राप्त होता है तब इन्द्रियों की वृत्ति स्फुरणरूप होती है और प्राण, अपानशक्ति जब उल्लास को प्राप्त