पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/६५९

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उपशम प्रकरण।

दुःख आादिक क्रम नष्ट हो जाता है और किसी का ज्ञान नहीं होता-- जैसे तम में कोई पदार्थ दृष्टि नहीं जाता। तेरे देखने से सुख-दुःख आदिक स्थित होते हैं-जैसे सूर्य की दृष्टि से प्रातःकाल शुक्लवर्ण से प्रकाश आता है। जब अपने स्वरूप को प्राप्त होता है तब अज्ञानरूप सर्वविकार नष्ट हो जाते हैं-जैसे प्रकाश से अन्धकार नष्ट होता है तो पदार्थ ज्यों का त्यों भासता है तैसे ही अज्ञान के नष्ट हुए से आत्मा ज्यों का त्यों भासता है। यह जो मनरूप तू है तेरे उपजने से सुख-दुःख की लक्ष्मी उपज आती है और तेरे अभाव हुए से सब नष्ट हो जाते हैं। स्वरूप से तू अनामयरूप है और क्षणभंगुर देह में जो मन ने आस्था की है सो महासूक्ष्म अणु निमेष के लक्ष भाग ऐसा सूक्ष्म है सुख दुःखादिक की भावना करके अनश्वरता को प्राप्त हुआ है तेरे प्रमाद से फुरनरूप होता है और तेरे देखने से सर्व लीन हो जाते हैं। यह जो पुर्यष्टक तेरा रूप है उसके देखने से क्षीण पदार्थ जाति भासि भाते हैं-जैसे नेत्रों के खोलने से रूप भासता है और मन के अन्तर्धान होने से सर्व नष्ट हो जाता है। और फिर किसी से ग्रहण नहीं होता। जो वस्तु क्षणभंगुर है उससे कुछ कार्य सिद्ध नहीं होता-जैसे बिजली के चमकने से कोई कार्य सिद्ध नहीं होता तैसे ही अन्तर्धान होने से देह से कुछ अर्थ सिद्ध नहीं होता। जो उपजकर तत्काल नष्ट हो जाता है उससे क्या कार्य सिद्ध हो? देहादिक जड़ और नाशवन्त हैं और सबको प्रकाशता है वह सदा निर्विकार सच्चिदानन्दरूप है। सुख दुःख आदिक अज्ञानी के चित्त को स्पर्श करते हैं और जिसका समचित्त है उसको स्पर्श नहीं करते। हे देव! ये जो सुख दुःख आदिक अविवेक के आश्रय हैं सो अविवेक नष्ट हो गया। तू निरीह निरंश निराकार है और सत्य असत्य से परे भैरवरूप परमात्मा तेरी सदा जय है। तू सर्वशास्त्रों का असि पद है। जात जातरूप सदा तेरी जय है, तेरे नाश और अविनाशरूप की जय है और तेरे भाव और अभावरूप की जय है और जीतने और न जीतने योग्य तेरी जय है। माया हुलास और उपशान्ति को प्राप्त हुआ है तुझको नमस्कार है। हे निर्दोष! तेरे में स्थित होने से मेरे राग द्वेष मिट गये हैं। अब बन्ध