पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/६६०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
६५४
योगवाशिष्ठ।

कहाँ और मोक्ष कहाँ और आपदा, सम्पदा और भाव-अभाव कहाँ। अब मेरे सर्वविकार शान्त हुए हैं और सम समाधि में स्थित हुआ हूँ।

इति श्रीयोग० उप० प्रह्लादोपाख्याने संस्तवननाम षट्त्रिंशत्तमस्सर्गः ३६

वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! इस प्रकार चिन्तनकर महाधैर्यवान् प्रह्लाद निर्विकार निरानन्द समाधि में ऐसे स्थित हुआ जैसे मूर्ति का पर्वत हो। जब बहुत काल अपने भुवन में सुमेरुवत् समाधि में स्थित रहा तब दैत्य उसको जगाने लगे परन्तु वह न जागा-जैसे समय बिना बीज अंकुर नहीं लेता-और पाँच सहस्र वर्ष समाधि में व्यतीत भये पर शरीर उसी प्रकार पुष्ट रहा। दैत्यों के नगर में शान्ति हो गई और वह परम आत्मा को प्राप्त हुआ, निरानन्द जो प्रकाश है सो प्रकाशमात्र रह गया और कलना सब मिट गई। इतना काल जब इस प्रकार व्यतीत हुआ तब रसातलमण्डल में राजभय दूर हो गया और छोटे को बड़ा भक्षण करने लगा। निदान दैत्यमण्डली की विपर्यय दशा हो गई और निर्बल को बलवान् मारके लूट ले गये। तब अनेक मल्ल मिलकर प्रह्लाद को जगाने लगे पर तो भी वह न जागा-जैसे सूर्यमुखी कमल को रात्रि में भँवरे गुञ्जार करें और तो भी वह प्रफुल्लित नहीं होता, मुँदा ही रहता है। संवित्कला जो चिद धातु है सो उसके भीतर फुर्ती न भासती थी जैसे मूर्त्तिका लीला सूर्यप्रकाश से रहित होता है तैसे ही उसे देखकर दैत्य उद्वेगवान् हुए और जहाँ किसी को सुखदायक देश स्थान मिला वहाँ जा रहे, मर्यादा सब दूर हो गई मत्सर होने लगा और पुरुष स्त्रियाँ रुदन करने और शोकवान् होने लगे। कोई मारे जावें, कोई लूटे जावें और व्यर्थ अनर्थ कदर्थ करनेवाले हो गये। सब दैत्यतापरायण हुए बान्धव नष्ट हो गये और उपद्रव उत्पन्न होने लगे। दिशा के मुख अग्नि रूप हो गये, देवता आन दिखाई देने लगे और दैत्य निर्बल को बाँध ले जाने लगे। दैत्य मूलभूमि से रहित निर्लक्ष्मी उजाड़ से हो गये और दैत्यपुर में अनीति प्रकाण्ड उपद्रव हुआ जैसे कल्प के अन्त में जीव दुख पाते हैं तैसे ही दैत्य दुःख पाने लगे।

इति श्रीयोग० उप० दैत्यपुरी प्रभञ्जनवर्णनन्नाम सप्तत्रिंशत्तमस्सर्गः ॥३७॥