पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/६६१

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उपशम प्रकरण।

वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! इस प्रकार जब दैत्यपुरी की दशा हुई तब सम्पूर्ण जगत्जाल के क्रम पानेवाले विष्णुदेव, जो क्षीरसमुद्र में शेषनाग की शय्या पर शयन करनेवाले हैं, चतुर्मास वर्षाकाल की निद्रा से जागे और बुद्धि के नेत्रों से जगत् की मर्यादा विचारी तो देखा कि पाताल में प्रह्लाद दैत्य समाधि में पद्मासन बाँधकर स्थित हुआ है और सृष्टि दैत्यों से रहित हुई है। बड़ा कष्ट है कि अब देवता जीतने की इच्छा से रहित होकर आत्मपद में स्थित हो जावेंगे और जब देवता और दैत्यों का विरोध रहता है तब जीतने के निमित्त याचना करते हैं कि दैत्य नष्ट होवें। अब सब देवता निर्द्वन्द्वरूप होकर परमपद को प्राप्त होवेंगे। जैसे रस से रहित बेलि सूख जाती है तैसे ही अभिमान और इच्छा से रहित देवता जगत् की ओर से सूखकर आत्मपद को प्राप्त होंगे। जब देवताओं के समूह शान्ति को प्राप्त होंगे तब पृथ्वी में यज्ञ तपादिक उत्तम क्रिया निष्फल हो जावेंगी न कोई करेगा, न किसी को प्राप्त होगा, और जब पृथ्वीलोक से शुभक्रिया नष्ट हुई तब लोक भी नष्ट हो जावेंगे, अकाण्ड प्रलय प्रसंग होगा और सब मर्यादा क्रम जगत् का नष्ट हो जावेगा। जैसे धूप से बरफ नष्ट होती है तैसे ही जगत् क्रम सब नष्ट होवेगा। इसके नष्ट हुए भी मुझको कुछ नहीं, परन्तु मैंने अपनी लीला रची है सो सब नष्ट हो जावेगी। तब मैं भी इस शरीर को त्यागकर परमपद में स्थित हूँगा और अकारण ही जगत् उपशम को प्राप्त होगा, इसमें मैं कल्याण नहीं देखता। जो दैत्यों के उद्वेग से रहित देवता भी शान्त हो जावेंगे तो तपक्रिया नष्ट हो जावेगी और जीव दुःखी होकर नष्ट हो जायेंगे। इससे मैं जगत्कर्म को स्थापन करूँ कि परमेश्वर की नीति इसी प्रकार है। अब रसातल को जाऊँ और जगत् की मर्यादा ज्यों की त्यों स्थापन करूँ पर जो मैं प्रह्लाद से भिन्न पाताल का राज्य करूँगा तो वह देवताओं का शत्रु होगा इससे ऐसे भी न करूँगा। प्रह्लाद का यह अन्त का जन्म है और परम पावन देह है और कल्प पर्यन्त रहेगी। यह ईश्वर की नीति है सो ज्यों की त्यों है, इससे मैं जाकर दैत्येन्द्र प्रह्लाद को जगाऊँ कि अब वह जागकर जीवन्मुक्त