पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/६६२

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योगवाशिष्ठ।

हुआ है दैत्यों का राज्य करे। जैसे मणि मल से रहित प्रतिबिम्ब को ग्रहण करती है तैसे ही प्रह्लाद भी इच्छा से रहित होकर प्रवर्त्त। इस प्रकार सृष्टि देवता दैत्यों से संयुक्त रहेगी और परस्पर इनका द्वेष न होगा और मेरी क्रीड़ा (लीला) अच्छी होगी। यद्यपि सृष्टि का होना न होना मुझको तुल्य है तो भी जो नीति है वह जैसे स्थित है तैसे ही रहे। जो वस्तु भाव में तुल्य हो उसका नाश और स्थित में प्रयत्न करना कुबुद्धि है, आकाश के हनन के यत्न के तुल्य है।

इति श्री योगवाशिष्ठे उपशमप्रकरणे भगवान्चित्तविवेको
नामाष्टत्रिंशत्तमस्सर्गः ॥ ३८ ॥

वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! इस प्रकार चिन्तन कर सर्वात्मा विष्णुदेव अपने परिवार सहित क्षीरसमुद्र से चले-जैसे मेघघटा एकत्र होकर चले -और आकर प्रह्लाद के नगर को प्राप्त हुए। वह नगर मानो दूसरा इन्द्रलोक था और प्रह्लाद के मन्दिर में देखा कि निकट दैत्य थे वे विष्णुजी को दूर से देखकर भाग गये-जैसे सूर्य से उलूकादिक भाग जावें। तब जो मुख्य दैत्य थे उनके साथ विष्णुजी ने दैत्यपुरी में प्रवेश किया-जैसे तारासंयुक्त चन्द्रमा आकाश में प्रवेश करता है तैसे ही विष्णुजी गरुड़ पर आरूढ़ लक्ष्मी साथ चमर करतीं और अनेक ऋषि, देव सहित प्रह्लाद के गृह आये। आते ही विष्णुजी ने कहा, हे महात्मापुरुष! जाग! जाग! ऐसे कहकर पाञ्चजन्य शंख बजाया जिससे महाशब्द हुआ। फिर उस प्रह्लाद के कानों के साथ लगाया और जैसे प्रलयकाल में इकट्ठा मेघ का शब्द हो तैसे ही बड़े शब्द को सुनकर दैत्य पृथ्वी पर गिर पड़े। निदान शनैः शनैः दैत्येन्द्र को जगाया और प्राणशक्ति जो ब्रह्मरन्ध्र में थी वहाँ से विष्णुजी ने उठाई और वह शरीर में प्रवेश कर गई। जैसे सूर्य के उदय हुए सूर्य की प्रभा वन में प्रवेश कर जाती है तैसे नवद्वारों में प्रवेश कर गई। तब प्राणरूपी तर्पण में चित्तसंवित् प्रतिबिम्बित होकर चैतन्य मुखत्व हुई और मनभाव को प्राप्त हुई और तब जैसे प्रातःकाल में कमल खिल आते हैं तैसे ही उसके नेत्र प्रफुल्लित हो आये और प्राण और अपान नाड़ी में छिद्रों के मार्ग विचरने लगे। जैसे वायु