पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/६६४

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योगवाशिष्ठ।

पुष्पों से प्रफुल्लित है और उदय होती है उसको मरना श्रेष्ठ है। जो पुरुष अपनी देह में आधि व्याधि दुःखों से जलता है और जिसके हृदय में कामक्रोधरूपी सर्प फुरते हैं और देहरूपी सूखा वृक्ष निष्फल है और चित्त चञ्चल है ऐसी देह के त्यागने को लोक में मरना कहते हैं; स्वरूप से नाश किसी का नहीं होता। क्या ज्ञानी का हो क्या अज्ञानी का हो। हे साधो! जिसकी बुद्धि आत्मतत्त्व के अवलोकन से उपराम नहीं होती ऐसा जो यथार्थदर्शी ज्ञानवान् है और जिसका हृदय राग द्वेष से रहित शीतल हुआ है और दृश्यवर्ग को साक्षीभूत होकर देखता है उसका जीना श्रेष्ठ है। जो पुरुष सम्यक् ज्ञान द्वारा हेयोपादेय से रहित है और चेतनतत्त्व में तद्रूप चित्त हुआ है, जिसने संकल्प मल से रहित चित्त को आत्मपद में लगाया है और जिस पुरुष को जगत् के इष्ट-अनिष्ट पदार्थ समान भासते हैं और शान्तचित्त हुआ लीलावत् जगत् के कार्य करता है, जो इष्ट-अनिष्ट की प्राप्ति में राग द्वेष नहीं करता, जिसे ग्रहण त्याग की बुद्धि उदय नहीं होती और जिसके श्रवण और दर्शन किये से औरों को आनन्द उपजता है उसका जीना शोभता है। जिसके उदय हुए से जीवों के हृदयकमल प्रफुल्लित होते हैं उसका चिरजीना प्रकाशवान शोभता है और वही पूर्णमासी के चन्द्रमावत् सफल प्रकाशता है-नीच नहीं शोभते।

इति श्री योगवाशिष्ठे उपशमप्रकरणे प्रह्लादोपाख्याने नारायणवनो-
पन्यासयोगोनामैकोनचत्वरिंशत्तमस्सर्गः ॥ ३९ ॥

श्रीभगवान बोले, हे साधो! यह जो देहसंग दृष्टि आती है उसका नाम जीना कहते हैं और इस देह को त्यागकर और देह में प्राप्त होने का नाम मरना है। हे बुद्धिमन्! इन दोनों पक्षों से अब तू मुक्त है, तुझको मरना क्या है जीना क्या है-दोनों भ्रममात्र हैं। इस अर्थ के दिखाने के निमित्त मैंने तुझसे मरना और जीना कहा है कि गुणवानों का जीना श्रेष्ठ है और मूढ़ों का मरना श्रेष्ठ है पर तू न जीता है, न मरेगा। देह के होते भी तू विदेह है और तेरे आकाश की नाई अङ्ग हैं। जैसे आकाश में वायु नित्य चलता है परन्तु उससे आकाश निर्लेप रहता है