पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/६६५

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उपशम प्रकरण।

तैसे ही तू देह में निर्लेप रहेगा। देह, इन्द्रियाँ, मन आदिक की क्रिया सब तुझसे होती हैं, सबका कर्त्ता और सत्ता देनेवाला तू ही है और स्वरूप से सदा अकर्त्ता है। जैसे वृक्ष की उँचाई का कारण आकाश है तैसे ही तेरे में कर्त्तव्य है। तू अब जागा है, तूने वस्तु ज्यों की त्यों जानी है और तू आस्ति नास्ति सर्व का आत्मा है यह परिच्छिन्नरूप जो देह है सो अज्ञानी का निश्चय है और यह केवल दुःखों का कारण है। तू तो सर्व प्रकार सर्वात्मा चेतन प्रकाश है, तेरी बुद्धि आत्मपरायण है और तुझको देह अदेह क्या और ग्रहण और त्याग क्या। जो तत्त्वदर्शी पुरुष हैं उनका भावपदार्थ उदय हो अथवा लीन हो और प्रलयकाल का पवन चले तो भी उसको चला नहीं सकता और जिसका मन भाव अभाव से रहित है यह जो पर्वत के ऊपर पर्वत पड़े और चूर्ण हो और कल्प की अग्नि में जलने लगे तो भी अपने आपमें स्थित है- चलायमान नहीं होता। सब भूत स्थित होवें; इकट्ठे नष्ट हो जावें अथवा बृद्ध होवें वह सदा अपने आपमें स्थित है इस देह के नष्ट हुए नाश नहीं होता और विरोधी हुए प्राप्त नहीं होता। इस देह में जो परमेश्वर आत्मा स्थित है वह मैं हूँ। मेरा अनात्मा भ्रम नष्ट हो गया है और ग्रहण त्याग मिथ्या कल्पना उदय नहीं होती। जो विवेकी तत्त्ववेत्ता है उसका संकल्पभ्रम नष्ट हो जाता है और जो प्रबुद्ध पुरुष है वह सब क्रिया करता भी अकर्तापद को प्राप्त होता है। वह सर्व अर्थों में अकर्ता, अभोक्ता रहता है और जगत् के किसी पदार्थ की इच्छा नहीं करता। जब कर्तृत्व भोक्तृत्व शान्त होता है तब आत्मपद शेष रहता है। इस निश्चय की दृढ़ता को बुद्धिमान मोर मुक्त कहते हैं। प्रबुद्ध पुरुष चिन्मात्रस्वरूप है और सबको अपने वश करके स्थित है, वह ग्रहण किसका करे और त्याग किसका करे। ग्राह्य और ग्राहक शब्द भाव अविद्या है और देह इन्द्रियों से होता है सो ग्रहण करना क्या और त्याग करना क्या? जब ग्राह्य-ग्राहक भाव हृदय से दूर हुआ उसी का नाम मुक्त है। जिसको ऐसी स्थिति उदय होती है वह परमार्थसत्ता में सदा स्थित रहता है और वह पुरुषों में पुरुषोत्तम सुषुप्त की नाई स्थित है, उसके अङ्गों की चेष्टा बोध को प्राप्त हुई है। परम