पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/६६९

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उपशम प्रकरण।

की सिद्धता कही है इसको जो मनुष्य विचारे उसके अनेक जन्मों के पाप नष्ट हो जावें इसमें कुछ संशय नहीं। रामजी ने पूछा, हे भगवन्! प्रह्लाद का मन तो परमपद में लग गया था पाश्चजन्य शब्द से उसको विष्णुजी ने कैसे जगाया? वशिष्ठ जी बोले, हे निष्पाप, हे रामजी! लोक में मुक्ति दो प्रकार की है एक सदेह और दूसरी विदेह, उनका भिन्न-भिन्न विभाग सुन। जिस पुरुष की बुद्धि देहादिकों से असंसक्त है और जिसको ग्रहण त्याग की इच्छा नहीं और निरहंकार हुआा चेष्टा करता है उसको तुम सदेह मुक्त जानो और देहादिक सब नष्ट हो जावें फिर न जन्म मरण करे उसको विदेह मुक्त जानो। वह उस पद को प्राप्त होता है जो अदृश्यरूप है। अज्ञानी की वासना कच्चे बीज की नाई है जो जन्मरूपी अंकुर को प्राप्त करती है और ज्ञानवान् मुक्त की वासना भूने बीज की नाई जो जन्मरूपी अंकुर से रहित होती है। विदेह मुक्त की वासना का अंकुर दृष्टि नहीं आता जीवन्मुक्त पुरुष के हृदय में शुद्ध वासना होती है और पावनरूप परम उदारता सत्तामात्र नित्य आत्मध्यान में है और संसार की ओर से सुषुप्ति की नाई शान्तरूप है। सहस्र वर्ष का अन्त हो जावे और शुद्ध वासना का बीज हृदय में हो तो वह पुरुष समाधि से जागेगा-वह जीवन्मुक्त है। इससे प्रह्लाद के हृदय में शुद्ध वासना थी उससे पाञ्चजन्य शंख के शब्द से वह जागा। विष्णुजी सब भूतों के आत्मा हैं जैसे जिसकी इच्छा फुरती है तैसे ही तत्काल होता है और वे सर्वज्ञ और सबके कारण हैं। जब विष्णु ने चिन्तना की तब प्रह्लाद जागा। आप कारण है कोई इसका कारण नहीं यही सब भूतों का कारण है सृष्टि की स्थिति निमित्त आत्मापुरुष ने विष्णुवपु धारा है और आत्मा के देखने ही से विष्णुजी का दर्शन होता है और विष्णु की आराधना से शीघ्र ही आत्मा का दर्शन होता है। आत्मा के देखने के निमित्त तुम भी इसी दृष्टि का आश्रय करो। तुम विराट्रूप हो, इसी दृष्टि से शीघ्र ही आत्मपद की प्राप्ति होगी। यह वर्षाकाल की नदीवत् संसार असार बादल है सो विचाररूपी सूर्य के देखे बिना जड़ता दिखाता है। विष्णुरूप जो आत्मा है उसकी प्रसन्नता से बुद्धिमान को यह भावस्वरूप