पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/६७०

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योगवाशिष्ठ।

माया नहीं बेधती। जैसे यक्षमाया यन्त्रमन्त्रवाले को नहीं बेध सकती तैसे ही आत्मा की इच्छा से यह संसार माया घनता को प्राप्त होती है और आत्मा की इच्छा से निवृत्त होती है। यह संसारमाया ईश्वर की इच्छा से वृद्ध होती है-जैसे अग्नि की ज्वाला वायु से वृद्ध होती है और वायु ही से नष्ट होती है।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे उपशमप्रकरणे प्रह्लादव्यवस्थावर्णनन्नाम द्विचत्वा-
रिंशत्तमस्सर्गः ॥ ४२ ॥

इतना सुनकर रामजी ने पूबा, हे भगवन् सब धर्मों के वेत्ता! आपके वचन परम शुद्ध और कल्याणस्वरूप हैं जिनको सुनकर मैं आनन्दवान् हुआ हूँ-जैसे चन्द्रमा की किरणों से औषध पुष्ट होती है--और आपके वचनों के सुनने को, जो पावन और कोमल हैं, जिसकी वाञ्छा है वह पुरुष जैसे पुष्पों की माला से सुन्दर छाती शोभती है तैसे ही शोभता है। हे गुरुजी! आप कहते हैं कि सब कार्य अपने पुरुष प्रयत्न से सिद्ध होते हैं, जो ऐसा है तो प्रह्लाद माधव के वर बिना क्यों न जागा-जब विष्णु ने वर दिया तब उसको ज्ञान प्राप्त हुआ? वशिष्ठजी बोले, हे राघव! प्रह्लाद को जो कुछ प्राप्त हुआ वह पुरुषार्थ से प्राप्त हुआ, पुरुषार्थ बिना कुछ प्राप्त नहीं होता। जैसे तिलों और तेल में कुछ भेद नहीं तैसे ही विष्णु भगवान् और आत्मा में कुछ भेद नहीं। जो विष्णु है वह आत्मा है और जो आत्मा है वह विष्णु है, विष्णु और आत्मा दोनों एक वस्तु के नाम हैं, जैसे विटप और पादप दोनों एक वृक्ष के नाम हैं। प्रह्लाद ने जो प्रथम अपने आपसे अपनी प्रेमशक्ति विष्णुभक्ति में लगाई सो आत्मशक्ति से लगाई, आत्मा से आप ही वर पाया और आप ही विचारकर अपने मन को जीता। कदाचित् आ‌त्मा में आप ही अपनी शक्ति से जागता है अथवा विष्णुशक्ति से जागता है। हे रामजी! प्रह्लाद चिरपर्यन्त आराधना करता प्रतापवान् हुआ। विचार से रहित को विष्णु भी ज्ञान नहीं दे सकता। आत्मा के साक्षात्कार में मुख्य कारण अपने पुरुषार्थ से उपजा विचार है और गौण कारण वर आदिक है, इससे तू मुख्य कारण का आश्रय कर। प्रथम पाँचों इन्द्रियों को वश कर