पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/६७५

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उपशम प्रकरण।

स्तुति करने लगे और हाथी पर बैठे से इसके मुख की शोभा और ही हो गई। निदान सेना सहित राजा ऐसा शोभायमान हुआ जैसे तारों में चन्द्रमा शोभता है और अन्तःपुर में जाकर रानियों में बैठा और सब रानियाँ और सहेलियाँ इसके निकट आई और इससे मिलने लगीं। सहे- लियों ने स्नान कराके नाना प्रकार के हीरे, मोती, भूषण और सुन्दर वस्त्र पहिराये। निदान सब प्रकार सुशोभित होकर राज्य करने लगा और सब स्थान और सब देशों में इसकी आज्ञा चलने लगी। और सब लोग इससे भय पावें। वहाँ वह बड़े तेज और लक्ष्मी से सम्पन्न हुआ और तेजवान् होकर विचरने लगा जैसे वन में सिंह विचरता है और हाथी पर चढ़कर शिकार खेलने जाता था। वहाँ उसका नाम गालव हुआ।

इति श्री योगवाशिष्ठे उपशमप्रकरणे गालवोपाख्याने चाण्डालनाम
चतुश्चत्वारिंशत्तमस्सर्गः ॥ ४४ ॥

वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! इस प्रकार लक्ष्मी पाकर वह आनन्दवान् हुआ और जैसे पूर्णमासी का चन्द्रमा शोभता है तैसे ही शोभित हुआ। जब आठ वर्ष पर्यन्त इस प्रकार राज्य किया तब एक दिन उसके मन में संकल्प फुरा कि मुझको वस्त्र और भूषणों के पहिरने से क्या है और इनकी सुन्दरता क्या है, मैं तो राजाधिराज हूँ और अपने तेज से तेजस्वी शोभायमान हूँ। हे रामजी! ऐसे विचारकर उसने भूषण उतार डाले, शुद्ध श्याम मूर्ति होकर स्थित हुआ और जैसे प्रातःकाल में तारागणों से रहित श्याम आकाश होता है तैसे ही होकर फिर अपनी चाण्डाल अवस्था के वस्त्र पहिन अकेला निकल कर बाहर डेवढ़ी पर जा खड़ा हुआ। निदान उस देश के बड़े चाण्डाल जिसको यह दुर्भिक्ष से छोड़ आया था उस मार्ग में आ निकले, उनमें एक चाण्डाल तन्द्री हाथ में लिये आता था उसने राजा को देखकर पहिचाना और श्याम पर्वतवत् राजा के सम्मुख आकर कहा, हे भाई! इतने काल तू कहाँ था? हमको छोड़कर यहाँ आकर सुख भोगने लगा है? हे भाई! यहाँ के राजा ने तुझको सुखी किया होगा, क्योंकि तू गाता भला है? राजा को राग प्यारा होता है और तू कोकिला की नाई गाता है। इस कारण प्रसन्न