पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/६७७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
६७१
उपशम प्रकरण।

शोभा की उत्पत्ति हो और जिसके जीने से पाप की उत्पत्ति हो उसका मरना श्रेष्ठ है। हे रामजी! ऐसे विचार कर उस राजा ने भी चिता बनाई और जैसे दीपक में पतङ्ग प्रवेश करता है तैसे ही प्रवेश कर गया। जब अग्नि का तेज शरीर में लगा तब गाधि का शरीर जो तालाब में डुबकी लगाये था काँपा और जल से बाहर शीश निकाला परन्तु सावधान न हुआ। इतना कहकर बाल्मीकिजी बोले कि जब इस प्रकार वशिष्ठजी ने कहा तब सूर्य अस्त हुआ और सब सभा परस्पर नमस्कार करके स्थान को गई।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे उपशमप्रकरणे राजप्रध्वंसवर्णनन्नाम
पञ्चचत्वारिंशत्तमस्सर्गः ॥ ४५ ॥

वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! इतना भ्रम उसने दो मुहूर्त में देखा और अर्धघटी पर्यन्त उसे कुछ बोध न हुआ। पर उसके उपरान्त बोधवान् हुआ और वह संसारभ्रम से रहित हुआ। जैसे मद्यपी नशे के क्षीण हुए बोधवान् हो तैसे ही वह बोधवान् हुआ। बाहर निकलकर विचारने लगा कि मुझको कुछ भ्रमसा हुआ है। कहाँ वह मेरा गृह में मरना, फिर चाण्डाल के गृह में जन्म लेना, फिर कुटुम्ब में रहना और फिर राज्य करना। बड़ा भ्रम मुझको हुआ है। हे रामजी! ऐसे विचारकर फिर उसने सन्ध्यादिक कर्म किये और इस भ्रम को फिर फिर स्मरण करके आश्चर्यवान् हो पर यह न जान सके कि भगवान् का वर पाकर मैंने यह माया देखी है। जब कुछ काल व्यतीत हुआ तब एक क्षुधार्थी दुर्बल ब्राह्मण थका हुआ इसके आश्रम पर आया-मानो ब्रह्मा के आश्रमपर दुर्वासा ऋषि आये-तब गाधि ने उस ब्राह्मण को आदर संयुक्त बैठाया और फल फूल इकट्ठे करके जैसे वसन्त ऋतु में फल फूल से वृक्ष पूर्ण होता है तैसे ही उसको पूर्ण किया। वह ब्राह्मण कई दिन वहाँ रहा। संध्यादिक कर्म और मन्त्रजाप दोनों इकट्ठे करें और रात्रि को पत्तों की शय्या बनाकर शयन करें। एक रात्रि के समय शय्या पर बैठे दोनों चर्चा वार्त्ता करते थे कि प्रसंग पाकर गाधि ने पूछा, हे ब्राह्मण! तेरा शरीर जो ऐसा कृश और थका हुआ है इसका क्या कारण है? उसने कहा, हे साधो! जो कुछ तूने पूछा है सो मैं कहता हूँ, हम सत्यवादी हैं- जैसे वृतान्त हुआ है सो तू सुन। एक काल में मैं