पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/६७८

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योगवाशिष्ठ।

देशान्तर फिरता फिरता उत्तर दिशा की ओर गया और क्रान्तदेश में जा पहुँचा और वहाँ रहने लगा। वहाँ के गृहस्थ भली प्रकार मेरी टहल करें और उनके भले भोजन और वस्त्रों से मैं प्रसन्न हो रसास्वाद से मेरा चित्त मोह गया। एक दिन मेरे मुख से यह शब्द निकला कि यहाँ के लोग बहुत श्रद्धावान् और दयावान् हैं तब जो लोग पास बैठे थे कहने लगे, हे साधो! आगे यहाँ दया धर्म बहुत था अब कुछ कम हो गया है। तब मैंने पूछा कि क्यों? तब उन्होंने कहा कि इस देश का राजा मृतक हुआ तब एक चाण्डाल राजा हुआ था। प्रथम किसी ने न जाना और वह आठ वर्ष पर्यन्त राज्य करता रहा। जब उसकी वार्त्ता प्रकट हुई कि यह चाण्डाल है तब देश के रहनेवाले ब्राह्मण क्षत्रिय चिता बना करके जल मरे और फिर राजा भी जल मरा। ऐसा पाप इस देश में हुआ है इस कारण दया धर्म कुछ कम हो गया है। हे ब्राह्मण! जब मैंने इस प्रकार नगरवासियों से सुना तब मैं बहुत शोकवान् हुआ और वहाँ से यह विचारता चला कि हाय हाय मैं बड़े पापी देश में रहा हूँ। ऐसे विचारकर मैं प्रयागादि तीर्थों पर चला और तीर्थ करके कुच्छ और चान्द्रायण व्रत करे अर्थात् कृष्णपक्ष में एक एक ग्रास घटाता जाऊँ और जब अमावस्या आवे तब निराहार रहूँ और जब शुक्लपक्ष आवे तब एक-एक ग्रास बढ़ाता जाऊँ और पूर्णमासी के चन्द्रमा के कला से बढ़ाना और कला के घटने से घटाना इस प्रकार मैंने तीन कुच्छ चान्द्रायण किये हैं। वहाँ से चलते चलते आश्रम पर आकर व्रत खोला है। हे साधो! इस निमित्त मेरा शरीर कृश और निर्बल हुआ। हे रामजी! जब इस प्रकार ब्राह्मण ने कहा तब गाधि विस्मय को प्राप्त हुआ कि मैं जानता था कि मुझको भ्रम ऐसा हो गया है सो इसने प्रत्यक्ष वार्त्ता कह सुनाई। ऐसे विचारकर फिर गाधि ने पूछा और फिर उसने ऐसे ही कहा तब सुनकर आश्चर्यवान् हुआ। जब रात्रि व्यतीत हुई और सूर्य उदय हुआ तब सन्ध्या आदिक कर्म किये और फिर एकान्त मे विचारने लगा कि मैंने कैसा भ्रम देखा है और ब्राह्मण ने सत्य कैसे देखा, इससे अब उस देश को चलकर देखूँ जहाँ मुझको चाण्डाल का शरीर हुआ था। हे रामजी! इस प्रकार विचारकर