पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/६८

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योगवाशिष्ठ।


श्रीरामजी बोले कि हे मुनीश्वर! यह जो नाना प्रकार के सुन्दर पदार्थ भासते हैं वह सब नाश रूप हैं, उनकी आस्था मूर्ख करते हैं। यह तो मन की कल्पना से रचे हुए हैं, उनमें से मैं किसकी आस्था करूँ? हे मुनीश्वर। अज्ञानी जीव का जीना व्यर्थ है, क्योंकि जीने से उनका कुछ अर्थ सिद्ध नहीं होता। जब कुमार अवस्था होती है तब बुद्धि मूढ़ होती है, उसमें कुछ विचार नहीं होता। जब युवावस्था भाती है तब काम क्रोधादिक विकार उत्पन्न होते हैं ये सदा ढाँपे रहते हैं। जैसे जाल में पक्षी बँध जाता है और आकशमार्ग को देख भी नहीं सकता वैसे ही काम क्रोधादिक से ढंका हुआ जीव विचार मार्ग को नहीं देख सकता। जब वृद्धावस्था आती है तब शरीर जर्जरीभूत और महादीन हो जाता है और जीव शरीर को त्याग देता है। जैसे कमल के ऊपर बरफ पड़ती है तब उसको भँवर त्याग देता है वैसे ही शरीररूपी कमल को जरा का स्पर्श होता है तब जीवरूपी भँवरा त्याग देता है। हे मुनीश्वर! यह शरीर तब तक सुन्दर हे जब तक वृद्धावस्था नहीं प्राप्त होती। जैसे चन्द्रमा का प्रकाश जब तक राहु दैत्य ने आवरण नहीं किया तब तक रहता है जब राहु दैत्य आवरण करता है तब तक प्रकाश नहीं रहता; वैसे ही जगवस्था के आने से युवावस्था की सुन्दरता जाती रहती है। हे मुनीश्वर! जरा के आने से शरीर कृश हो जाता है, जैसे वर्षाकाल में नदींबढ़ जाती है वैसे ही जरावस्था में तृष्णा बढ़ जाती है और जिम पदार्थ की तृष्णा करता है वह पदार्थ भी दुःखरूप है, इसलिये तृष्णा करके आप ही दुःख पाता है। हे मुनीश्वर! तृष्णारूपी समुद्र में चित्तरूपी बेड़ा पड़ा है और रागद्वेषरूपी मच्छों से कभी उर्व को जाता है और कभी नीचे आता है, स्थिर कदाचित् नहीं रहता। हे मुनीश्वर! कामरूपी वृक्ष में तृष्णारूपी लता और विषयरूपी फूल हैं; जब जीवरूपी भँवरा उसके ऊपर बैठता है तब विषय रूपी वेलि से मृतक हो जाता है। हे मुनीश्वर! तृष्णारूपी एक बड़ी नदी है उसमें राग-द्वेषादिक बड़े-बड़े मच्छ रहते हैं। उसी नदी में पड़े हुए जीव दुःख पाते हैं। जिस संसार की इच्छा करता है वह नाशरूप है। हे मुनीश्वर! तरंगों के समूह के रणरूपी समुद्र को तरजानेवाले को भी