पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/६८१

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उपशम प्रकरण।

अदृष्टता है उसको यह चित्तभ्रम होता है। और वह क्या भ्रम था, जितना कुछ जगत् प्रत्यक्ष देखता है वह तेरे मन में स्थित है। पृथ्वी आदिक तत्त्व कोई नहीं, जैसे बीज के भीतर फूल, फल, पत्र होते हैं तैसे ही पृथ्वी, जल, तेज, वायु आकाश जो पाँच भौतिक हैं वह सब विस्तार चित्त में स्थित है। जैसे वृक्ष का विस्तार बीज में दृष्टि नहीं आता पर जब बोया हुआ उगता है तब विस्तार से दृष्टि आता है, तैसे ही जब चित्त ज्ञान में लीन होता है तब जगत् नहीं भासता और जब स्पन्दरूप होता है तब बड़े विस्तारसंयुक्त भासता है। हे ब्राह्मण! जो कुछ जगत् देखता है वह सब चित्त का भ्रम है। जैसे एक कुलाल घटादिक वासना उत्पन्न करता है तैसे ही एक चित्त ही अनेक भ्रमरूप पदार्थों को उत्पन्न करता है और जो चित्त वासना से रहित है उससे भ्रमरूप पदार्थ कोई नहीं उपजता। इससे चित्त को स्थित कर। हे ब्राह्मण! इस चित्त में कोटि ब्रह्माण्ड स्थित हैं। जो तुझको चाण्डाल अवस्था का अनुभव हुआ तो इसमें क्या आश्चर्य हुआ और तू कहता है कि मैंने बड़ी आश्चर्यरूप माया देखा है सो उसको ही माया कहता है। अब जो तुझको विद्यमान भासता है वह सब ही माया है। जो तुझको अपने गृह में अनुभव हुआ था और चाण्डाल के गृह में जन्म लिया, कुटुम्बी हुआ और राज किया, फिर चिता में जला, फिर अतिथि ब्राह्मण से मिला, फिर जाकर सब स्थान देखे सो भी माया थी। जैसे इतना भ्रम तूने माया से देखा तैसे ही यह फैलाव भी सब माया है। हे साधो! जैसे स्वप्न में नाना प्रकार के पदार्थ भासते हैं और जैसे मदिरापान करनेवाले को सब पदार्थ भ्रमते दिखते हैं तैसे ही जगत् भी भ्रम से भासता है। जैसे नौका पर बैठे को तटवृक्ष भ्रमते भासते हैं तैसे ही यह जगत् भी भ्रममात्र भासता है और चित्त के स्थित करने से जगत्भ्रम नष्ट हो जावेगा-अन्यथा निवृत्त न होवेगा। जैसे पत्र, फूल, फल, टास, काटने से वृक्ष नष्ट नहीं होता जब मूल से काटिये तब नष्ट हो जाता है तैसे ही जब जगत्भ्रम का मूल चित्त ही नष्ट हो जावेगा तब संपूर्ण भ्रम निवृत्त हो जावेगा। यह चित्त का नाश होना क्या है? चित्त की चैत्यता जो दृश्य की ओर धावती है