पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/६८३

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उपशम प्रकरण।

सो तेरे चित्त में मन फुरी, इस कारण तूने जाना कि यह अवस्था मैंने देखी है। हे साधो! अकस्मात् ऐसे भी होता है कि और की प्रतिभा और को फुर आती है। कहीं अन्यथा भी होती है, कहीं एक जैसी भी होती है, इस भ्रम का अन्त लेना नहीं बनता, क्योंकि यह चित्त के फुरने से होती है। जब चित्त आत्मपद में स्थित होता है तब जगत्भ्रम निवृत्त हो जाता है। काल की विषमता भी होती है-जैसे जाग्रत की दो घड़ी में अनेक वर्षों का स्वप्न देखता है तैसे ही यह सब चित्त का भ्रम जाना। तू इस भ्रम को न देख, चित्त को स्थित करके अपने ब्राह्मण का आचार कर। हे रामजी! ऐसे कहकर विष्णु गुप्त हो गये परन्तु ब्राह्मण का संशय दूर न हुआ। वह मन में विचारे कि और की प्रतिभा मुझको कैसे हुई यह तो मैंने प्रत्यक्ष भोगी है और जाकर देखी है यह और की वार्त्ता कैसे हो आँखों से नहीं देखी होती उसका अनुभव भी नहीं होता और मैंने तो प्रत्यक्ष अनुभव किया है। ऐसे ऐसे विचारकर फिर वही स्थान देखे और आश्चर्यवान् हुआ फिर विचार किया कि यह मुझको बड़ा संशय है इसके दूर करने का उपाय भगवान् से पूछूँ। हे रामजी! ऐसे चिन्तन कर फिर तप करने लगा और जब कुछ काल पहाड़ की कन्दरा में तप करते बीता तब फिर विष्णु ने आकर कहा, हे ब्राह्मण! अब तेरी क्या इच्छा है? ऐसे जब विष्णु ने कहा तब गाधि ब्राह्मण बोला हे भगवन्! तुम कहते हो कि यह और की प्रतिभा तुझको फुर आई है और अपनी होकर भासती है और काल की विषमता भी भासती है। यह संशय जिस प्रकार मेरे चित्त से दूर हो सो उपाय कहो। और मेरा प्रयोजन कुछ नहीं है केवल यह भ्रम निवृत्त करो। श्रीभगवान् बोले, हे ब्राह्मण! यह जगत् सब मेरी माया से रचा है इससे मैं तुझसे सत्य क्या कहूँ और असत्य क्या कहूँ। जो कुछ तुझको भासता है वह सब मायामात्र है और चित्त के भ्रम से भासता है। उस चाण्डाल की अवस्था तेरे चित्त में भासि आई थी। जैसे किसी को भ्रम से रस्सी में सर्प भासे इसी प्रकार औरों को भी रस्सी में सर्प भासता है तैसे ही प्रतिभा तुझको भासि आई है। काल का रूप आकार कुछ नहीं पर काल भी तुझको