पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/६८४

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योगवाशिष्ठ।

एक पदार्थ की नाई फुर आया है। चित्त में पदार्थ काल से भासते हैं। और काल पदार्थों से भासता है। अन्यान्य न्यून अधिक जो भासता है सो स्वन की नाईं है-जैसे जाग्रत् के एक मुहूर्त में स्वप्न के अन्तकाल का अनुभव होता है। यह चित्त का फुरना जैसे जैसे फुरता है तैसे तैसे हो भासता है, रोगी को थोड़ा काल भी बहुत भासता है और भोगी को बहुत काल भी थोड़ा भासता है। हे साधो! जो नहीं भोगा होता उसका भी अनुभव होता है। जैसे त्रिकालदर्शी को भविष्यत् वृत्तान्त भी वर्त्तमान की नाई भासता है, तैसे ही तुझको भी अनुभव हुआ है। एक ऐसे भी होता है कि प्रत्यक्ष अनुभव किया विस्मरण हो जाता है। यह सब मायारूप चित्त का भ्रम है। जब तक चित्त आत्मपद में स्थित नहीं हुआ तब तक अनेक भ्रम भासते हैं और जब चित्तस्थित होता है तबभ्रम मिट जाता है और तब केवल एक अद्वैत आत्मतत्त्व ही भासता है जैसे सम्यक मन्त्र का पाठकर ओलों का मेघ नष्ट हो जाता है-असम्यक् मन्त्र से नष्ट नहीं होता तैसे ही तेरा चित्त अबतक वश नहीं हुआ। चित्त को आत्मपद में लगाने से सब भ्रमनिवृत्त हो जावेगा। अहं त्वं आदिक जो कुछ शब्द हैं व अज्ञानी के चित्त में दृढ़ होते हैं, ज्ञानवान् इनमें नहीं फँसता। हे साधो! जो कुछ जगत् है सो अज्ञान से भासता है और आत्मज्ञान हुए से नाश हो जाता है। जैसे जल में तूम्बी नहीं डूबती तैसे ही अहं त्वं आदिक शब्दों में ज्ञानवान् नहीं डूबता। सब शब्द चित्त में वर्तते हैं सो ज्ञानी का चित्त अचितपद को प्राप्त होता है इससे तू दशवर्ष पर्यन्त तप में स्थित हो तब तेरा हृदय शुद्ध होगा। जब चित्तपद प्राप्त होगा तब सब संकल्प से रहित आत्मपद तुझको प्राप्त होगा और जब आत्मपद प्राप्त होगा तब सब संशय जगत् भ्रम मिट जावेंगा। हे रामजी? ऐसे कहकर जब त्रिलोकी के नाथ विष्णु अन्तर्धान हो गये तब गाधि ब्राह्मण ऐसे मन में धरकर तप करने लगा और मन के संसरने को स्थित कर दशवर्ष पर्यन्त समाधि में चित्त को स्थित किया। जब ऐसे परम तप किया तब उसे शुद्ध चिदानन्द आत्मा का साक्षात्कार हुआ। फिर शान्तवान् होकर विचरा और जो कुछ रागद्वेष आदिक विकार हैं उनसे रहित होकर शान्ति को प्राप्त हुआ।

इति श्रीयोग॰ उप॰ गाधिबोधप्राप्तिवर्णनन्नामषटूचत्वारिंशत्तमस्सर्गः ४६ ॥