पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/६८५

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उपशम प्रकरण।

वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! यह गाधि का आख्यान मैंने तुझसे माया की विषमता जताने के निमित्त कहा है कि परमात्मा की माया मोह को देनेवाली है और विस्तृतरूप और दुर्गम है। जो आत्मतत्त्व को भूला है उसको यह आश्चर्यरूप भ्रम दिखाती है। तू देख कि दो मुहूर्त कहाँ और इतना काल कहाँ? चाण्डाल और राजभ्रम को जो वर्षों पर्यन्त देखता रहा। भ्रम से भासना और प्रत्यक्ष देखना यह सब माया की विषमता है सो असत्रूप भ्रम है और जो दृढ़ होकर प्रसिद्ध भासित होत है इससे आश्चर्यरूप परमात्मा की माया है, जब तक बोध नहीं होता तब तक अनेक भ्रम दिखाती है। रामजी ने पूबा, हे भगवन्! यह माया संसारचक्र है उसका बड़ा तीक्ष्ण वेग है और सब अङ्गों को छेदनेवाला है, जिससे यह चक्र रुके और इस भ्रम से छूटूँ वही उपाय कहिये। वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! यह जो मायामय संसारचक्र है उसका नाभिस्थान चित्त है। जब चित्त वश हो तब संसारचक्र का वेग रोका जावे, और किसी प्रकार नहीं रोका जाता। हे रामजी! इस वार्त्ता को तू भली प्रकार जानता है। हे निष्पाप! जब चक्र की नाभि रोकी जाती है तब चक्र स्थित हो जाता है-रोके बिना स्थित नहीं होता। संसाररूपी चक्र की चित्तरूपी नाभि को जब रोकते हैं तब यह चक्र भी स्थित हो जाता है-रोके बिना यह भी स्थित नहीं होता। जब चित्त को स्थित करोगे तब जगत्भ्रमनिवृत्त हो जावेगा और जब चित्त, स्थित होता है तब परब्रह्म प्राप्त होता है। तब जो कुछ करना था सो किया होता है और कृतकृत्य होता है और जो कुछ प्राप्त होना था सो प्राप्त होता है -फिर कुछ पाना नहीं रहता। इससे जो कुछ तप, ध्यान, तीर्थ, दान आदिक उपाय हैं उन सबको त्यागकर चित्त के स्थित करने का उपाय करो। सन्तों के सङ्ग और ब्रह्मविद शास्त्रों के विचार से चित्त आत्मपद में स्थित होगा। जो कुछ सन्तों और शाखों ने कहा है उसका बारम्बार अभ्यास करना और संसार को मृगतृष्णा के जल और स्वप्नवत् जानकर इससे वैराग्य करना। इन दोनों उपायों से चित्त स्थित होगा और आत्मपद की प्राप्ति होगी और किसी उपाय से आत्मपद की प्राप्ति न