पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/६८६

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योगवाशिष्ठ।

होवेगी। हे रामजी! बोलने चालने का वर्जन नहीं, बोलिये, दान दीजिये अथवा लीजिये परन्तु भीतर चित्त को मत लगाओ इनका साक्षी जानने- वाला जो अनुभव आकाश है उसकी ओर वृत्ति हो। युद्ध करना हो तो भी करिये परन्तु वृत्ति साक्षी ही की ओर हो और उसी को अपना रूप जानिये और स्थित होइये। शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध, ये जो पाँच विषय इन्द्रियों के हैं इनको अङ्गीकार कीजिये परन्तु इनके जाननेवाले साक्षी में स्थित रहिये। तेरा निजस्वरूप वही चिदाकाश है, जब उसका अभ्यास बारम्बार करियेगा तब चित्त स्थित होगा और आत्मपद की प्राप्ति होगी। हे रामजी! जब तक चित्त आत्मपद में स्थित नहीं होता तब तक जगत्भ्रम भी निवृत्त नहीं होता। इस चित्त के संयोग से चेतन का नाम जीव है। जैसे घट के संयोग से आकाश को घटाकाश कहते हैं पर जब घट टूट जाता है तब महाकाश ही रहता है, तैसे ही जब चित्त का नाश होगा तब यह जीव चिदाकाश ही होगा। यह जगत् भी चित्त में स्थित है, चित्त के अभाव हुए जगत्भ्रम शान्त हो जावेगा। हे रामजी! जब तक चित्त है तब तक संसार भी है, जैसे जब तक मेघ है तब तक बूँदें भी हैं और जब मेघ नष्ट हो जावेगा तब बूँदें भी न रहेंगी। जैसे जब तक चन्द्रमा की किरण शीतल हैं तब तक चन्द्रमा के मण्डल में तुषार है तैसे ही जब तक चित्त है तब तक संसारभ्रम है। जैसे मांस का स्थान श्मशान होता है और वहाँ पक्षी भी होते और ठौर इकट्ठे नहीं होते, तैसे ही जहाँ चित्त है वहाँ रागद्वेषादिक विचार भी होते हैं और जहाँ चित्त का अभाव है वहाँ विकार का भी अभाव है। हे रामजी! जैसे पिशाच आदिक की चेष्टा रात्रि में होती है, दिन में नहीं होती, तेसे ही राग, द्वेष, भय, इच्छा आदिक विकार चित्त में होते हैं। जहाँ चित्त नहीं वहाँ विकार भी नहीं -जैसे अग्नि बिना उष्णता नहीं होती, शीतलता बिना बरफ नहीं होती, सूर्य बिना प्रकाश नहीं होता और जल बिना तरङ्ग नहीं होते तैसे ही चित्त बिना जगत्भ्रम नहीं होता। हे रामजी! शान्ति भी इसी का नाम है और शिवता भी वही है, सर्वज्ञता भी वही है जो चित्त नष्ट हो, आत्मा भी वही है और तृप्तता भी वही है पर जो चित्त नष्ट नहीं हुआ