पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/६८८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
६८२
योगवाशिष्ठ।

निकट त्रिलोकी के पदार्थ सब तुच्छ भासते हैं वह ऐसे दिव्य तेज को प्राप्त होता है जिसको सूर्य भी नहीं प्रकाश कर सकता। वह परम प्रकाश-रूप सब कलना से रहित अद्वैततत्त्व है। हे रामजी! उस आत्मतत्त्व में स्थित हो रहो। जिस पुरुष ने ऐसे स्वरूप को पाया है उसने सब कुछ पाया है और जिसने ऐसे स्वरूप को नहीं पाया उसने कुछ नहीं पाया। ज्ञानवान् को देखकर हमको ज्ञान की वार्ता करते कुछ लज्जा नहीं आती और जो उस ज्ञान से विमुख है यद्यपि वह महाबाहु हो तो भी गर्दभवत् है। जो बड़े ऐश्वर्य से सम्पन्न है और आत्मपद से विमुख है उसको तू विष्ठा के कीट से भी नीच जान। जीना उनका श्रेष्ठ है जो आत्मपद के निमित्त यत्न करते हैं और जीना उनका वृथा है जो संसार के निमित्त यत्न करते हैं। वे देखनेमात्र तो चेतन हैं परन्तु शव की नाई हैं। जो तत्त्ववेत्ता हुए हैं वे अपने प्रकाश से प्रकाशते हैं और जिनको शरीर में अभिमान है वे मृतक समान हैं। हे रामजी! इस जीव को चित्त ने दीन किया। ज्यों ज्यों चित्त बढ़ा होता है त्यों त्यों इसको दुःख होता है और जिसका चित्त क्षीण हुआ है उसका कल्याण हुआ है। जब आत्मभाव अनात्म में दृढ़ होता है और भोगों की तृष्णा होती है तब चित्त बड़ा हो जाता है और आत्मपद से दूर पड़ता है। जैसे बड़े मेघ के आवरण से सूर्य नहीं भासता तैसे ही अनात्म अभिमान से आत्मा नहीं भासता। जब भोगों की तृष्णा निवृत्त हो जाती है तब चित्त क्षीण हो जाता है। जैसे वसन्त ऋतु के गये से पत्र कृश हो जाते हैं तैसे ही भोगवासना के अभाव से चित्त कृश हो जाता है। हे रामजी! चित्तरूपी सर्प दुर्वासनारूपी दुर्गन्ध, भोगरूपी वायु और शरीर में दृढ़ आस्थारूपी मृत्तिका स्थान से बड़ा हो जाता है, और उन पदार्थों से जब बड़ा हुआ तब मोहरूपी विष से जीव को मारता है। हे रामजी! ऐसे दुष्टरूपी सर्प को जब मारे तब कल्याण हो। देह में जो आत्म अभिमान हो गया है, भोगों की तृष्णा फुरती है और मोहरूपी विष चढ़ गया है, इससे यदि विचाररूपी गरुड़मन्त्र का चिन्तन करता रहे तो विष उतर जावे इसके सिवाय और उपाय विष उतरने का कोई नहीं। हे रामजी! अनात्मा में