पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/६९

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वैराग्य प्रकरण।

मैं शूर नहीं मानता, परन्तु जो इन्द्रियरूपी समुद्र में मनोवृत्तिरूपी तरङ्ग उठते हैं उस समुद्र के तरजानेवाले को मैं शूर मानता हूँ। ऐसी क्रिया अज्ञानी जीव आरम्भ करते हैं कि जिसके परिणाम में दुःख हो। जिसके परिणाम में सुख है उसका आरम्भ वे नहीं करते और काम के अर्थ की धारणा करते हैं। ऐसे आरम्भ से शरीर की शान्ति के पीछे भी सुख की प्राप्ति नहीं होती। वे कामना करके सदा जलते रहते हैं। जो अनात्मपदार्थ की तृष्णा करते हैं उनको शान्ति केसे प्राप्त हो? हे मुनीश्वर! तृष्णारूपी नदी में बड़ा प्रवाह है, उसके किनारे पर वैराग्य और सन्तोष दो वृक्ष खड़े हैं, सो तृष्णा नदी के प्रवाह से दोनों का नाश होता है। हे मुनीश्वर! तृष्णा बड़ी चंचल है, किसी को स्थिर नहीं होने देती। मोहरूपी एक वृक्ष है उसके चारों ओर सत्तर रूपी बोल है सो विषसे पूर्ण है। उस पर चित्तरूपी भँवरा आ बैठता है तब स्पर्शमात्र से नाश होता है। जैसे मोर का पुच्छ हिलता है वैसे ही अज्ञानी का चित्त चंचल रहता है, इसलिए वह मनुष्य पशु के समान है। जैसे पशु दिन को जंगल में जा आहार करते और चलते फिरते हैं और रात्रि को घर में आय खूँटे से बाँधे जाते हैं वैसे ही मूर्ख मनुष्य भी दिन को घर छोड़के व्यवहार में फिरते हैं और रात्रि को आ अपने घर में स्थिर होते हैं। पर इससे परमार्थ की कुछ सिद्धि नहीं होती, वे अपना जीवन वृथा गँवाते हैं। बाल्यावस्था में तो शून्य रहता है और युवावस्था में काम से उन्मत्त होता है। उस काम से चित्तरूपी उन्मत्तहस्ती स्त्रीरूपी कन्दरा में जा स्थिर होता है, पर वह भी क्षणभंगुर है। फिर वृद्धावस्था आती है उससे शरीर कृश हो जाता है। जैसे बरफ से कमल जर्जरीभाव को प्राप्त होता है वैसे ही जरा से शरीर जर्जरीभाव को प्राप्त होता है और सब अङ्ग क्षीण हो जाते हैं, पर एक तृष्णा बढ़ जाती है। हे मुनीश्वर! यह जीव मनुष्यरूपी पर्वत पर आ आकाश के फलरूपी जगत् के पदार्थों की इच्छा करता है सो नीचे गिर राग-देषरूपी कण्टक के वृक्ष में जा पड़ेगा। हे मुनीश्वर! जितने जगत् के पदार्थ हैं वह सब आकाश के फूल की नाई नाशवान् हैं। इनमें आस्था करनी मूर्खता है। यह तो शब्दमात्र हैं।