पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/६९०

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योगवाशिष्ठ।

रस्सी से सम्पूर्ण जगत् कर्ता, कर्म, क्रियारूपी गाँठ करके बँधा है। जैसे एक जंजीर के साथ अनेक बँधते हैं और एक तागे के साथ अनेक दाने पिरोये जाते हैं तैसे ही एक चित्त से सब देहधारी बाँधे हैं। उस रस्सी को असंग शस्त्र से काटे तब सुखी हो। हे रामजी! चित्तरूपी अजगर सर्प भोगों की तृष्णारूपी विष से पूर्ण है और उसने फुंकार के साथ बड़े-बड़े लोक जलाये हैं और शम, दम, धैर्यरूपी सब कमल जल गये हैं। इस दुष्ट को और कोई नहीं मार सकता, जब विचाररूपी गरुड़ उपजे तब इसको नष्ट करे और जब चित्तरूपी सर्प नष्ट हो तब आत्मरूपी निधि प्राप्त होगी। हे रामजी! यह चित्त शस्त्रों से काटा नहीं जाता, न अग्नि से जलता है और न किसी दूसरे उपाय से नाश होता है, केवल साधु के संग और सत्शास्त्रों के विचार और अभ्यास से नाश होता है। हे रामजी! यह चित्तरूपी गढ़े का मेघ बड़ा दुःखदायक है, भोगों की तृष्णारूपी बिजली इसमें चमकती है और जहाँ वर्षा इसकी होती है वहाँ बोधरूपी क्षेत्र और शम-दमरूपी कमलों को नाश करती है। जब विचाररूपी मन्त्र हो तब शान्त हो। हे रामजी! चित्त की चपलता को असंकल्प से त्यागो। जैसे ब्रह्मास्त्र से ब्रह्मास्त्र छिदता है तैसे ही मन से मन को छेदो अर्थात् अन्तर्मुख हो। जब तेरा चित्तरूपी वानर स्थित होगा तब शरीररूपी वृक्ष क्षोभ से रहित होगा। शुद्ध बोध से मन को जीतो और यह जगत् जो तृण से भी तुच्छ है उससे पार हो जाओ।

इति श्री योगवाशिष्ठे उपशमप्रकरणे राघवसेवनवर्णन-
न्नाम सप्त चत्वारिंशत्तमस्सर्गः ॥ ४७ ॥

वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! मन की वृत्ति ही इष्ट व अनिष्ट को ग्रहण करती है और खड्ग की धारवत् तीक्ष्ण है, इसमें तुम प्रीति मत करो बल्कि इसको मिथ्या जानकर त्याग करो। हे रामजी! बोधरूपी बेलि जो शुभक्षेत्र और शुभकाल से प्राप्त हुई है उसको विवेकरूपी जल से सींचो तब परमपद की प्राप्ति हो। हे रामजी! जबतक शरीर मलिनता को प्राप्त नहीं हुआ और जबतक पृथ्वी पर नहीं गिरा तबतक बुद्धि को उदार करके संसार से मुक्त हो। मैंने जो वचन तुझसे कहे हैं उनको तुमने जाना