पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/६९१

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उपशम प्रकरण।

है, अब इनका दृढ़ अभ्यास करो तब दृश्यभ्रम निवृत्त हो जावेगा। हे रामजी! यह पाञ्चभौतिक शरीर जो तुमको भासता है सो तुम्हारा रूप नहीं है तुम शुद्ध चेतनरूप हो। शुद्ध बोध से विचार करके पाञ्चभौतिक अनात्म अभिमान को त्यागो। रामजी ने पूछा, हे भगवन्! किस क्रम और किस प्रकार से इसका अभिमान त्यागकर उद्दालक सुखी हुआ है? वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! पूर्व में जैसे उद्दालक भूतों के समूह को विचार करके परमपद को प्राप्त हुआ है सो तुम सुनो। हे रामजी! जगत्रूपी जीर्णघर के वायव्यकोण में एक देश है जो पर्वत और तमालादि वृक्षों से पूर्ण है और महामणियों का स्थान है। उस स्थान में उद्दालक नाम एक बुद्धिमान् ब्राह्मण मान करने के योग्य विद्यमान था परन्तु अर्धप्रबुद्ध था, क्योंकि परमपद को उसने न पाया था। वह ब्राह्मण यौवन अवस्था के पूर्व ही शुभेच्छा से शास्त्रोक्त यम, नियम और तप को साधने लगा तब उसके चित्त में यह विचार उत्पन्न हुआ कि हे देव! जिसके पाने से फिर कुछ पाने योग्य न रहे, जिस पद में विश्राम पाने से फिर शोक न हो और जिसके पाने से फिर बन्धन न रहे ऐसा पद मुझको कब प्राप्त होगा? कब मैं मन के मनन भाव को त्यागकर विश्रान्तिमान् हूँगा-जैसे मेघ भ्रमने को त्यागकर पहाड़ के शिखर में विश्रान्ति करता है-और कब चित्त की दृश्यरूप वासना मिटेगी जैसे तरङ्ग से रहित समुद्र शान्तिमान् होता है तैसे ही कब मैं मन के संकल्प विकल्प से रहित शान्तिमान् हूँगा? तृष्णारूपी नदी को बोधरूपी बेड़ी और सत्संग और सत्शास्त्र-रूपी मल्लाह से कब तरूँगा, चित्तरूपी हाथी जो अभिमानरूपी मद से उन्मत्त है उसको विवेकरूपी अंकुश से कब मारूँगा और ज्ञानरूपी सूर्य से अज्ञानरूपी अन्धकार कब नष्ट करूँगा? हे देव! सब आरम्भों को त्यागकर मैं लेप और अकर्ता कब होऊँगा? जैसे जल में कमल अलेप रहता है तैसे ही मुझको कर्म कब स्पर्श न करेंगे? मेरा परमार्थरूपी भास्वर वपु कब उदय होगा जिससे मैं जगत् की गति को देखकर हँसूँगा? हृदय में सन्तोष पाऊँगा और पूर्णबोध विराट् आत्मा की नाई होऊँगा? वह समय कब होगा कि मुझ जन्मों के अन्धे को ज्ञानरूपी नेत्र प्राप्त होगा, जिससे