पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/६९३

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उपशम प्रकरण।

सुन्दर और पशुपक्षी मृगों से रहित एकान्त स्थान था और जो देवता को भी देखना कठिन था। वहाँ अत्यन्त प्रकाश भी न था और अत्यन्त तम भी न था, न अत्यन्त उष्ण था और न शीत जैसे मधुर कार्त्तिक मास होता है तैसे ही वह निर्भय एकान्त स्थान था। जैसे मोक्षपदवी निर्भय एकान्तरूप होती है तैसे ही उस पर्वत में कुटी बना और उस कुटी में तमाल पर और कमलों का आसनकर और ऊपर मृगछाला बिछाकर वह बैठा और सब कामना का त्याग किया। जैसे ब्रह्माजी जगत् को उपजाकर छोड़ बैठे तैसे ही वह सब कलना को त्याग बैठा और विचार करने लगा कि अरे मूर्ख मन! तू कहाँ जाता है, यह संसार मायामात्र है और इतने काल तू जगत् में भटकता रहा, पर कहीं तुझको शान्ति न हुई, वृथा धावता रहा। हे मूर्ख मन! उपशम को त्यागकर भोगों की भोर धावता है। सो अमृत को त्यागकर विष का बीज बोता है, यह सब तेरी चेष्टा दुःखों के निमित्त है। जैसे कुशवरि अपना घर बनाकर आप ही को बन्धन करती है तैसे ही तू भी आपको आप संकल्प उठाकर बन्धन करता है। अब तू संकल्प के संसरने को त्यागकर आत्मपद में स्थित हो कि तुझको शान्ति हो। हे मन! जिह्वा के साथ मिलकर जो तू शब्द करता है वह दर्दुर के शब्दवत् व्यर्थ है। कानों के साथ मिलकर सुनता है तब शुभ अशुभ वाक्य ग्रहण करके मृग की नाई नष्ट होता त्वचा के साथ मिलकर जो तू स्पर्श की इच्छा करता है सो हाथी की नाई नष्ट होता है, रसना के स्वाद की इच्छा से मछली की नाई नष्ट होता है और गन्ध लेने की इच्छा से भँवरे की नाई नष्ट हो जावेगा। जैसे भँवरा सुगन्ध के निमित्त फूल में फँस मरता है तैसे तू फँस मरेगा और सुन्दर स्त्रियों की वाञ्छा से पतङ्ग की नाई जल मरेगा। हे मूर्ख मन! जो एक इन्द्रिय का भी स्वाद लेते हैं वे नष्ट होते हैं तू तो पञ्चविषय का सेवनेवाला है क्या तेरा नाश न होगा। इससे तू इनकी इच्छा त्याग कि तुझको शान्ति हो। जो इन भोगों की इच्छा न त्यागेगा तो मैं ही तुझको त्यागूँगा। तू तो मिथ्या असत्यरूप है तुझको मेरा क्या प्रयोजन है विचार कर मैं तेरा त्याग करता हूँ। हे मुर्ख मन! जो तू देह में अहं अहं करता है सो तेरा अहं किस अर्थ