पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/६९५

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उपशम प्रकरण।

तू भी राग-द्वेष से रहित होकर चेष्टा करे तो तुझको दुःख कुछ न हो। जो वासना सहित कर्म करता है वह बन्धन का कारण होता है, वासना बिना कुछ दुःख नहीं होता। तू मूर्ख है जो विचार कर नहीं देखता। इससे मैं तुझको त्याग करता हूँ। तेरे साथ मिलके मैं बड़े खेद पाता हूँ। जैसे भेड़िये के बालक को सिंह चूर्ण करता है तैसे ही तूने मुझको चूर्ण किया है। तेरे साथ मिलकर मैं तुच्छ हुआ हूँ। अब तेरे साथ मेरा प्रयोजन कुछ नहीं, मैं तो निर्विकल्प शुद्ध चिदानन्द हूँ। जैसे महाकाश घट से मिलकर घटाकाश होता है तैसे ही तेरे साथ मिलकर मैं तुच्छ हो गया हूँ। इस कारण मैं तेरा सङ्ग त्यागकर परम चिदाकाश को प्राप्त होऊँगा। मैं निर्विकार हूँ और अहं त्वं की कल्पना से रहित हूँ। तू क्यों अहं त्वं करता है? शरीर में व्यर्थ अहं करनेवाला और कोई नहीं तू ही चोर है। अब मैंने तुझको पकड़कर त्याग दिया है। तू तो अज्ञान से उपजा मिथ्या और असत्यरूप है जैसे बालक अपनी परछाहीं में वैताल जानकर आप भय पाता है तैसे ही तूने सबको दुःखी किया है। जब तेरा नाश होगा तब आनन्द होगा। तेरे उपजने से महादुःख है -जैसे कोई ऊँचे पर्वत से गिरके कूप में जा पड़े और कष्टवान् हो तेसे ही तेरे सङ्गसे में आत्मपद से गिरा देह अभिमानरूपी गढ़े में रागद्वेषरूपी दुःख पाता था, पर अब तुझको त्यागकर मैं निरहंकारपद को प्राप्त हुआ हूँ। वह पद न प्रकाश है, न तम है, न एक है, न दो है, न बड़ा है और न छोटा है, अहं त्वं आदि से रहित अचैत्य चिन्मात्र है। जरा मृत्यु राग द्वेष और भय सब तेरे संयोग से होते हैं। अब तेरे वियोग से मैं निर्विकार शुद्ध पद को प्राप्त होता हूँ। हे मन! तेरा होना दुःख का कारण है। जब तू निर्वाज हो जावेगा तब मैं ब्रह्मरूप होऊँगा। तेरे सङ्ग से मैं तुच्छ हुआ हूँ, जब तू निवृत्त होगा तब मैं शुद्ध होऊँगा-जैसे मेघ और कुहिरे के होने से आकाश मलीन भासता है पर जब वर्षा हो जाती है तब शुद्ध और निर्मल हो रहता है, तैसे ही तेरे निवृत्त हुए निर्लेप अपना आप आत्मा भासता है। हे चित्त! ये जो देह इन्द्रियादिक पदार्थ हैं सो भिन्न हैं, इनमें अहं वस्तु कुछ नहीं, इनको एक तूने ही इकट्ठी किया है। जैसे