पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/६९८

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योगवाशिष्ठ।

तो मन उसके नाश की इच्छा करता है, और देह कहती है मन न हो तो मेरे में कोई दुःख नहीं-इसका मिलना ही दुःख का कारण है। हे मूर्ख मन! देह को तेरे संग से दुःख होता है। स्वतःनहीं। मन में देह का अभिमान न हो तो भी कोई दुःख नहीं, इनके संयोग से ही दुःख होता है और बिछुरने से दुःख कुछ नहीं-तैसे ही मन और देह का संयोग कुछ नहीं। जैसे जहाँ अंगारों की वर्षा होती है वहाँ बुद्धिमान् नहीं रहते तैसे ही इनमें मिलाप करना हमको योग्य नहीं। हे मूर्ख मन! जितना कुछ दुःख तुझको होता है सो देह के मिलाप से होता है तो फिर इसके साथ तू किस निमित्त मिलता है और आपको सुखी जानता है। इसके मिलने से तुझको दुःख ही होता है परन्तु तू ऐसा मूर्ख है जो बारम्बार देह की ओर ही दौड़ता है और सुख जानता है पर तेरा नाश होता है। जैसे पतङ्ग दीपक को सुखरूप जानकर मिलने की इच्छा करता है पर जल मरता है और मछली मांस की इच्छा करती है सो बंसी में फँस मरती है तैसे ही तू देह की इच्छा करता है और नाश को प्राप्त होता है, इससे इसका अभिमान त्याग तो तुझको शान्ति हो। देह कुछ वस्तु नहीं केवल मन ही का विकार है। पञ्चतत्वों की देह बनी हुई है सो भी कुछ वस्तु नहीं है, सब मन के फुरने से रचे हैं, इससे फुरने को त्यागकर आत्मपद में स्थित हो कि तुझको शान्ति हो। मैं तो इससे अतीत शुद्ध चिदानन्द-स्वरूप हूँ, मेरे पास न कोई मन है और न इन्द्रियाँ हैं। मैं अद्वैतरूप हूँ। जैसे राजा के समीप में कोई नहीं होता तैसे ही मेरे निकट मन और इन्द्रियाँ कोई नहीं-मैं शुद्ध आत्मतत्त्व हूँ। भोगों से मुझे क्या प्रयोजन है कि उनसे मिलकर दीनता को प्राप्त होऊँ। मुझको इनके साथ कुछ प्रयोजन नहीं चिरपर्यन्त रहें अथवा अबहीं नष्ट हो जावें, इनके नाश होने से मेरा नाश नहीं होता और ठहरने से प्रयोजन सिद्ध नहीं होता मैंने इनसे आपको भिन्न जाना है। जैसे तिलों से तेल निकाल लिया तब फिर तिलों में नहीं मिलता और दूध से माखन निकाल लिया तब फिर दूध में नहीं मिलता, तैसे ही विचार करके अपना आप निकाल लिया तब फिर इनके साथ नहीं मिलता। मैं शुद्ध चिदानन्द आत्मा हूँ,