पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/६९९

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उपशम प्रकरण।

सब जगत् मेरे आश्रय है और सबमें मैं एक ही अनुस्यूत (व्यापा) हूँ। अब मैं उसी स्वरूप में स्थित होऊँ। वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! ऐसे विचारकर उद्दालक ब्राह्मण विषयों से वृत्ति और निवृत्त करके पद्मासन बाँध प्रणव अर्थात् अर्धमात्रा और आकार-उकार-मकार की क्रम से उपासना करने लगा और प्राणायाम करके मात्रा का ध्यान किया। अकार ब्रह्मा उकार विष्णु, मकार शिव और अर्धमात्रा तुरीया इन की क्रम सहित करने लगा। प्रथम रेचक प्राणायाम करने लगा और अकार की ध्वनि के साथ रेचक किया उससे सब प्राणवायु भीतर से निकले और हृदय शून्य और शुद्ध हुआ-जैसे अगस्त्यमुनि ने समुद्र को शून्य किया था-और आकाश से ऐसी ध्वनि हुई जो ब्रह्मा, विष्णु और रुद्रपर्यन्त चली गई और देहाभिमान को त्यागकर पुर्यष्टक को सुषुम्णा के मार्ग में प्राप्त किया। जैसे पक्षी आालय को त्यागकर आकाशमार्ग को उड़ता है तैसे ही उद्दालक ने पर्यटकको बान्ध में स्थित किया। हठ करने से दुःख होता है इस कारण जब तक सुख रहा तब तक स्थित रहा और जब थका और पुर्यष्टक का वायु अधः से आया तब उकार विष्णुरूप की ध्वनि और ध्यान के साथ कुम्भक किया। जब सब प्राणवायु को श्राधारचक्र में रोका-न नीचे जावे न ऊपर आवे-तो प्राण स्थित हुए और उससे अग्नि निकली जिससे इसके सब पाप पुण्य जल गये। उसमें जबतक सुख रहा तब तक स्थित रहा, क्योंकि हठयोग दुःखदायक है और फिर मकार की ध्वनि से रुद्र का ध्यान करके पूरक प्राणायाम किया। पूरक प्राणायाम करके सब स्थान वायु से पूर्ण किये और ऊर्ध्व को चित्तकला प्राप्त हुई उससे यह औरों को पवित्र करनेवाला हुआ। जैसे धुआँ आकाश को जाता है और जल पाकर औरों को शीतल करनेवाला होता है तैसे ही इसका शरीर औरों को पवित्र करनेवाला हुआ। जेसे मन्दराचल से मथे हुए क्षीरसमुद्र से कल्पवृक्ष निकला तैसे ही इसके शरीर में प्राणवायु स्थित हुई और पद्मासन बाँधकर इन्द्रियों को रोका। जैसे हाथी बन्धनों से बँधता है तैसे ही इसने इन्द्रियों को रोका। अर्धमात्रा जो तुरीयापद है उसके दर्शन के निमित्त यत्न करने लगा। उसने नेत्रों को आधा