पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/७००

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योगवाशिष्ठ।

मूँदा और बाह्य विषयों को त्याग इन्द्रियों को भी त्याग किया और प्राण अपान को मूलचक्र में रोका जिससे नवों द्वार रोके गये। जैसे बालक के खेलने का पानी चोर होता है और उसके मूँदने से चलता पानी सब छिद्रों से रोका जाता है, तैसे ही मूल चक्र के रोकने से नवोंद्वार रोके गये। इस प्रकार उसने चित्त को रोका और जब मनरूपी चञ्चलमृग दौड़ा तब वैराग्य और अभ्यास के बल से फिर उसे रोका। जैसे बाँध से जल का वेग रुकता है तैसे ही उसने सब चित्त को स्थित किया तब अन्तकरण की जो सात्त्विकी वृत्ति है उसको भी त्यागकर स्थित हुआ। जब मन की वृत्ति जो निद्रारूप है उसमें मन मूर्च्छित हो गया तब राजस-तामस का प्रवाह फिर फुरने लगा और उसको आत्मविवेक से निवृत्त किया। जैसे प्रकाश तम को निवृत्त करता है तैसे ही इस विकल्परूपी तम को उसने निवृत्त किया और विवेक के बल से चित्तकला में लगा और चित्त की वृत्ति से साक्षात्कार किया पर उसमें एक क्षण चित्त स्थित रहा और फिर बाहर निकल गया। जैसे बाँध को तोड़कर जल निकल जाता है। निदान उसने फिर अभ्यास के बल से उसे आत्मकला में लगाया तब उस परमशान्त आत्मपद में चित्त की वृत्ति स्थित हुई और परमानन्द अमृत में मग्न हुई जो अशब्द, आनन्द और परिणाम से रहित है और जिस पद में देवता, ऋषीश्वर, ब्रह्मा, विष्णु और रुद्र स्थित हैं। हे रामजी! जो उस पद में एक क्षण भी स्थित हुआ है और जो वर्ष पर्यन्त हुआ है दोनों तुल्य हैं जिसको उस पद का अनुभव हुआ है वह भोगों की इच्छा नहीं करता। जैसे जिसने स्वर्ग का नन्दन वन देखा है वह कञ्ज के वन देखने की इच्छा नहीं करता, तैसे ही ज्ञानवान् भोगों की वाञ्छा नहीं करता और शोक कदाचित नहीं उपजता। जैसे जिसको राज्य हुआ है वह दीनता को नहीं प्राप्त होता, तैसे ही जिसने आत्मपद में स्थिति पाई है उसको विषयों की तृष्णा और शोक नहीं उपजता। हे रामजी! जब इस प्रकार उद्दालक स्थित था तब सिद्ध, गन्धर्व और विद्याधरों के गण जिनके मुख चन्द्रमा की नाई थे उसके निकट आये और नमस्कार करके बोले, हे भगवन्! स्वर्ग में चलके दिव्यभोग भोगो, तुमने बड़ी तपस्या