पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/७०१

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उपशम प्रकरण।

की है। धर्म, अर्थ और पुण्य का सार काम है और काम का सार जो स्त्रियाँ हैं वे तुम्हारे भोगने के निमित्त हैं, जिनसे स्वर्ग भी शोभता है- जैसे वसन्त ऋतु की मञ्जरी और पुष्पों से पृथ्वी शोभती है। इससे तुम विमानों पर आरूढ़ होकर स्वर्ग में चलो और बहुत काल पर्यन्त भोग भोगो। हे रामजी! जब सिद्धों ने इस प्रकार बहुत कहा तब तब उद्दालक ने उनको अतिथि जानकर निरादर तो न किया किन्तु यथायोग्य पूजा करके हँसा और कहा कि हे सिद्धो! तुमको नमस्कार है, आओ। पर वह उनकी सिद्धता में आसक्त न हुआ, क्योंकि परमानन्द में स्थित था और विषयों के सुख तुच्छ जानता था। जैसे अमृत खानेवाला विष की इच्छा नहीं करता तैसे ही उद्दालक सुख को न चाहता था। कुछ दिन रहकर सिद्ध पुजते रहे और फिर उठ गये पर यह परमपद में स्थित रहकर अपने प्रकृत व्यवहार करता रहा। फिर मेरु और मन्दराचल पर्वत में विचरा और कन्दरा में ध्यान लगा बैठा। कहीं एक दिन भर बैठा रहे और कहीं वर्षों के समूह बीत जावें, इस प्रकार समाधि करके उतरा फिर समाधि लग गई। हे रामजी! चित्ततत्त्व के अभ्यास से चैतन्य तत्व को प्राप्त होता है। दिशा में जैसे चित्र का सूर्य होता है तैसे ही उदय अस्त से रहित हो उसने परम उपशम पद को पाया, चित्त भली प्रकार शान्त हो गया और जन्मरूपी फाँसी को तोड़ उसका देहरूपी भ्रम-क्षीण होकर शरत्काल के आकाशवत् निर्मल हुआ विस्तृत और उत्कृष्ट प्रकाशरूप उसका वपु हो गया। तब वह सत्ता सामान्य में स्थित होकर विचरने लगा और परमशान्ति को प्राप्त हुआ।

इति श्री योगवाशिष्ठे उपशमप्रकरणे उद्दालक विश्रान्तिवर्णन-
न्नामैकोनपञ्चाशत्तमस्सर्गः ॥ ४९ ॥

रामजी ने पूछा, हे आत्मरूप! आप ज्ञान दिन के प्रकाशकर्ता सूर्य हैं, संशयरूपी तृणों के जलानेवाले अग्नि हैं और ज्ञानरूपी तापों के शान्ति कर्त्ता चन्द्रमा हैं। हे ईश्वर! सत्ता सामान्य का रूप क्या है? वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! जगत् के अत्यन्त अभाव की भावना करके जब चित्त क्षीण हो और उससे जो शेष रहे सो सत्ता सामान्य है।