पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/७०३

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उपशम प्रकरण।

जिसमें इन्द्रादिकों का आनन्द भी तुच्छ भासता है। ऐसा विश्वम्भर मानन्द जो उत्तम पुरुषों से सेवने योग्य है और जो अद्वैत और अपशब्द सामान्य है उसमें जब उद्दालक प्राप्त हुआ तो परम शान्तिरूप हो गया। निदान कुछ काल पीछे उसका शरीर गिर पड़ा-जैसे रस सूखने से वृक्ष गिर पड़ता है। जैसे वीणा बजती है और उसका शब्द प्रकट होता है तैसे ही जब वायु चले और उसके शरीर में प्रवेश कर निकले तो शब्द प्रकट होता था। कुछ काल पीछे देवताओं की स्त्रियाँ, अश्विनीकुमार की शक्ति जिसका अग्नि की नाई तेज है और देव देवी जो सब देवताओं में पूज्य हैं सखियों सहित आई और उस शरीर को सुगन्धित पुष्पों की माला पहिराकर उसकी पूजा करके नृत्य करने लगीं और लीला की। हे रामजी! उद्दालक के चित्त को वृत्ति में कलना से रहित विवेकरूपी वेलि हुई और उसमें आत्मानन्दरूपी फल लगा। जिसके हृदय में ऐसे फूलों की सुगन्ध स्थित हो वह सब भ्रम से तर जावे। जिसको ऐसा विवेक प्राप्त हो तो वह सब भ्रम से मुक्त हो।

इति श्री योगवाशिष्ठे उपशमप्रकरणे उद्दालकनिर्वाणवर्णन-
न्नाम पञ्चाशत्तमस्सर्गः ॥ ५० ॥

वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! जिस प्रकार उद्दालक ऋषीश्वर आत्मपद को प्राप्त हुआ है उसी क्रम से अपने आपको विचार करके तू भी आत्म- पद को प्राप्त हो। हे कमलनयन! कर्तव्य यही है कि गुरु और शास्त्रों के वचनों को धारण कर जगत्भ्रम से मुक्त हो और आत्म अभ्यास से शान्त पद को प्राप्त हो। प्रथम गुरु और शासृत्रों के वाक्यों को समझिये और उससे जो विषयभूत अर्थ है उसके अभ्यास में बुद्धि को लगाइये। इस प्रकार जब दृढ़ता हो तब परमपद की प्राप्ति हो। अथवा बुद्धि में एक तीक्ष्ण अभ्यास हो और कलंक कल्पना से रहित ऐसा बोध हो तो साधनादि सामग्री से रहित हो अथवा वैरागादिक सामग्री से रहित हो तो भी अविनाशी पद को प्राप्त हो। रामजी ने पूछा, हे भूतभविष्य के ईश्वर! एक ज्ञानवान् पुरुष तो समाधि में स्थित होता है और फिर जगत् व्यवहार में विचरता है और एक समाधि में स्थित है जगत् का व्यवहार नहीं करता