पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/७०५

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उपशम प्रकरण।

कर्तृत्व अभिमान है और समाधि में बैठा है तो भी उसको व्युत्थान जानो। हे रामजी! चित्त के चलाने का कारण स्मृति है जो स्मृति जगत् को लेकर समाधि लगा बैठता है तो भी चित्त वासना से फैल जाता है। जैसे बीज से अंकुर उपजता है और फैल जाता है तैसे ही मन में जो वासना होता है उसमें चित्त फैल जाता है और जो जगत् की वासना मन से जाती रहती है अर्थात् जगत् का सततभाव निवृत्त हो जाता है तब चित्त अचल हो जाता है। हे रामजी! जिस चित्त से वासना नष्ट होती है उसको अचल स्थिति कहते हैं, वह ध्यान में केवलीभाव में स्थित होता है और जिसके चित्त में सदा वासना फुरती है उसको सदा क्षोभ होता है। इससे निर्वासनिक होकर तुम परमपद को प्राप्त हो। हे रामजी! जिस चित्त में वासना गन्ध होती है उसमें कर्तृत्व का अभिमान भी फुरता है और उससे सदा दुःखी होता है। वासना के क्षीण हुए मुक्त होता है। जिस पुरुष के चित्त से जगत् की आस्था निवृत्त हुई है और वीतशोक हुआ है वह स्वस्थ आत्मा है तिसको समाधि कहते हैं। हे रामजी! जिसके हृदय से संसार का राग द्वेष मिट गया है और शान्ति को प्राप्त हुआ है उसको सदिव्य समाधि कहते हैं। इससे चित्त में जो पदार्थभावना है उसको त्यागकर अपने स्वभाव में स्थित हो, तप गृह में रहो अथवा वन में जाओ दोनों तुमको तुल्य हैं। हे रामजी! जो गृह में स्थित है और चित्त समाहित है और अहंकार के दोष से रहित है उसको कुटुम्ब और जनों के समूह भी वन की नाई हैं। ज्ञानवान् को गृह और वन तुल्य है और देह अभिमानी जो अज्ञानी है वह वन में जाय और समाधि लगा बैठता है पर चित्त की वृत्ति विषयों की भोर रहती है तब वह जगत् के समूह को देखता है अथवा सुषुप्ति में जड़भूत हो जाती है। हे रामजी! चित्त उत्थान में स्वरूप से गिरा हुमा जगत् भ्रम दिखाता है और जब चित्त निर्वाणपद आत्मा में स्थित होता है तब उपशम होता है। हे रामजी! जो पुरुष सब भाव पदार्थों से आत्मा को अतीत जानता है वह समाहित चित्त कहाता है और जिसको जाग्रत् जगत् स्वनवत् भासता है वह समहित चित्त कहाता है। वह पुरुष जन के समूह में रहता है तो भी उसका सम्बन्ध किसी से नहीं। जैसे कोई