पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/७१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
६५
वैराग्य प्रकरण।

को सङ्ग चला जाता हो सो सब एक क्षण वृक्ष की छाया के नीचे बैठते हैं फिर न्यारे न्यारे हो जाते हैं। जैसे उस यात्रा में स्नेह करना मूर्खता है वैसे ही इनमें भी स्नेह करना मूर्खता है। हे मुनीश्वर! अहं ममता की रस्सी के साथ बाँधे हुए घटीयन्त्र की नाई सब जीव भ्रमते फिरते हैं, उनको शान्ति कदाचित् नहीं होती। यह देखने मात्र तो चेतन दृष्टि आता है, परन्तु पशु और बन्दर इन से श्रेष्ठ हैं जिनकी सम्मति देह और इन्द्रियों के साथ बंधी हुई है और आगमापायी हैं उनको आत्मपद की प्राति कठिन है। जैसे पवन से वृक्ष के पात टूट के उड़ जाते हैं फिर उनको वृक्ष के साथ लगना कठिन है वैसे ही जो देहादिक से बाँधे हुए हैं उनको आत्मपद का पाना कठिन है। हे मुनीश्वर! जब भात्मपद से विमुख होता है तब जगत् को सत्य देखता है भोर जब आत्मपद की और आता है तब संसार इसको बड़ा विरस लगता है। ऐसा पदार्थ जगत् में कोई नहीं जो स्थिर रहे, जो कुछ पदार्थ है सो नाश को प्राप्त होते हैं। इससे मैं किसकी आस्था करूँ और किसका आश्रय करूँ सब तो नाशवन्त भासते हैं? वह पदार्थ मुझसे कहिये जिसका नाश न हो।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे वैराग्यप्रकरणेसर्वपदार्थाभाववर्णनन्नाम
द्वविंशतितमस्सर्गः॥२२॥

श्रीरामजी बोले कि हे मुनीश्वर! जितना स्थावर जङ्गम जगत् दीखता है वह सब नाशरूप है, कुछ भी स्थिर न रहेगा। जो खाई थी वह जल से पूर्ण हो गई है और जो बड़े जल से भरे हुए समुद्र दीखते वे थे खाईरूप हो गये; जो सुन्दर बड़े बागीचे थे वे आकाश की नाई शून्य होगये मोर जो शुन्य स्थान थे वे सुन्दर वृक्ष होकर वन में दृष्टि आते हैं। जहाँ बस्ती थी वहाँ उजाड़ हो गई और जहाँ उजाड़ थी वहाँ वस्ती हो गई। जहाँ गढ़े थे वहाँ पर्वत हो गये और जहाँ बड़े पर्वत थे वहाँ समान पृथ्वी हो गई। हे मुनीश्वर! इस प्रकार पदार्थ देखते देखते विपर्यय हो जाते हैं, स्थिर नहीं रहते तो फिर मैं किसका आश्रय करूं और किसके पाने का यत्न करूँ ये पदार्थ तो सब नाशरूप हैं। जो बड़े ऐश्वर्य से सम्पन्न और बड़े कर्तव्य करते भौर बड़े वीर्यवान् तेजवान् हुए हैं वे भी मरणमात्र