पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/७१०

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योगवाशिष्ठ।

देखता है तब सर्प भय निवृत्त होता है, तैसे ही अहंता से यह दुःख पाता है और अहंता के शान्त हुए शान्तिमान् होता है। हे रामजी! ज्ञानवान् जो कुछ कर्म करता, खाता, पीता, लेता देता, हवन करता है उसमें अहन्ता का अभिमान नहीं करता इससे करने में उसका कुछ अर्थ सिद्ध नहीं होता और जो नहीं करता उसमें भी कुछ अभिमान नहीं इससे करने से उसको कुछ हानि नहीं होती वह अपने स्वभाव में स्थित है और जगत् को द्वैतभाव से नहीं देखता, सब को आत्मभाव से देखता है इससे उसे कर्म स्पर्श नहीं करते।

इति श्री योगवाशिष्ठे उपशमप्रकरणे ध्यानविचारो
नामैकपञ्चाशत्तमस्सर्गः ॥ ५१ ॥

वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! चित्त आदिक जो जगत् है सो वास्तव में आत्मा से भिन्न नहीं है। आत्मरूपी मिरव है उससे चित्त अहंतारूपी देश, काल, तीक्ष्णता भिन्न नहीं जैसे ईख से मधुरता भिन्न नहीं तैसे आत्मा से जगत् भिन्न नहीं। जैसे पत्थर में कठोरता है तैसे ही आत्मा में जगत् है, जैसे पर्वत में जड़ता होती है तैसे ही आत्मा में जगत् है, जैसे पर्वत में जड़ता होती है तैसे ही आत्मा में अहन्ता आदिक होते हैं। जैसे फूल, फल, टास वृक्ष से भिन्न नहीं होते तैसे ही आत्मा में अहन्ता आदिक अभेद होते हैं, जैसे तीक्ष्णता मिरचों से भिन्न नहीं होता तैसे ही चित्त महन्तारूपी देशकाल आत्मा से भिन्न नहीं। जैसे अग्नि में उष्णता बरफ में शीतलता, सूर्य में प्रकाश और गुड़ में मधुरता होती है, तैसे हो आत्मा में जगत् होता है। जैसे अमृत में स्वादवेदना होती है तैसे ही आत्मा में देश कालवेदना होती है। हे रामजी! जैसे मणि में प्रकाश होता है तैसे आत्मा में अहन्ता होती है और जैसे जल से तरङ्ग भिन्न नहीं होता तैसे ही आत्मा से अहन्ता आदिक भिन्न नहीं होते। जो कुछ जगत् भासता है सो आत्मतत्त्व का प्रकाश है जो अनन्त आत्मा सबमें पूर्ण है और एक ही ईश्वरभाव में स्थित महाघन शिला की नाई स्थित है-उससे भिन्न कुछ नहीं। जैसे आकाश अपने भाव में स्थित है तैसे ही सत्य केवल आत्मा में स्थित है और अपने आपसे निर्वेद है पर वेदना भी उससे नहीं। जैसे जल ही तरङ्गरूप हो भासता है तैसे ही आत्मा वेदनारूप हो