भासता है और जैसे जल में द्रवता और पवन में चलना भासता है तैसे ही ज्ञानरूप आत्मा में अहन्ता से देश काल, जगत् भासता है। हे रामजी! जीवों का जीना ज्ञान से होता है और ज्ञानसत्ता चैतन्यरूप है। चिन्मात्र और जीवों में रञ्चकमात्र भी कुछ भेद नहीं। जैसे ज्ञान चैतन्यसत्ता और जीव में भेद नहीं तैसे ही ज्ञाता और जगत् में कुछ भेद नहीं-एक ही अखण्डसत्ता ज्यों की त्यों स्थित है। हे रामजी! सर्वसत्ता एक, अज, अनादि और आदि अन्त, मध्य से रहित, प्रकाशरूप, चिन्मात्र अद्वैत तत्त्व अपने आप में स्थित है। वह अवाच्यपद है उसमें वाणी प्रवेश नहीं कर सकती और जितने वाक्य हैं वह उसके जताने के निमित्त कहे हैं। वास्तव में द्वैतवस्तु कुछ नहीं है, एक आत्मतत्त्व को अपने हृदय में धारण कर स्थित हो।
इति श्री योगवाशिष्ठे उपशमप्रकरणे भेदनिराशावर्णनन्नाम
द्विपञ्चाशत्तमस्सर्गः ॥ ५२ ॥
वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! एक आगे पुरातन इतिहास हुआ है उसको तुम सुनो। उत्तर दिशा में एक सुगन्धित पृथ्वी है वह मानो कपूर से लिपी हुई है और वहाँ सदाशिव के हंस स्थित हैं। हिमालय के शिखर पर वह कैलास पर्वत है जो सब पर्वतों से उत्तम और उज्ज्वल है वह रुद्र के रहने का स्थान है, वहाँ कल्पवृक्ष लगे हैं और गङ्गा का प्रवाह चलता है। और भी बहुतसी बड़ी नदियाँ वहाँ चलती हैं और कमलों सहित बहुत महासुन्दर तालाब स्थित हैं जहाँ बहुत मृग पक्षी हैं। उस हिमालय के नीचे स्वर्णवत् जटावाले क्रान्त रहते हैं-जैसे वृक्ष के मूल में पिपीलिका रहती हैं। उस क्रान्त देश का राजा सुरघ मानो प्रत्यक्ष लक्ष्मीमूर्ति धारे हुए, वेगवान् ऐसा मानो पवन की मूर्ति, वैराग्यवान् मानो गजेन्द्र, बुद्धिमान मानो बृहस्पति और शुक्र के समान कवि था। राजा ऐसा था मानो इन्द्र है, और धनी ऐसा मानो कुबेर था। राजा होकर वह राज्य करता था और भली प्रकार प्रजा की पालना करता था। जो भले मार्ग में चलें उनकी वह रक्षा करे और जो पापकर्म चोरी आदिक करे उनको दण्ड दे और जैसा कर्म प्राप्त हो उसमें द्वेष से रहित होकर व्यतीत करे। एक समय वह अपने स्थान में बैठा था तब चित्त में विचार