पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/७१२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
७०४
योगवाशिष्ठ।

पुरुष राजमार्ग में चला जाता है तो मार्ग के किसी पदार्थ से सम्बन्ध नहीं रखता तैसे ही उस पुरुष का अभिमान किसी में नहीं फुरता। जिस पुरुष का चित्त अन्तर्मुख हुआ है वह सोवे अथवा बैठे, चले अथवा देखे उसे नगर और ग्राम सब महावनरूप भासता है और सब जगत् उसको आकाशरूप भासता है। जिस पुरुष को आत्मा में प्रीति हुई है वह अन्तर्मुखी कहाता है और जिसका हृदय आत्मज्ञान से शीतल हुआ है उसको सब जगत् शीतलरूप भासता है। वह जब तक जीता है तब तक विगतज्वर होकर जीता है और जिसका हृदय तृष्णा से जलता है उसको सब जगत् दावाग्नि से तपता भासता है। हे रामजी! यह सब जगत् चित्त में स्थित है, जैसी भावना चित्त में होती है उसके अनुसार जगत् भासता है। स्वर्ग, पृथ्वी, लोक, पाताल, वायु, नदियाँ, आकाश, देश, काल जो कुछ जगत् है वह सबचित्त (अन्तःकरण) में है और वही बाहर विस्तार होकर भासता है। जैसे वट के बीज से वट फैल जाता है तैसे ही चित्त में जगत् का विस्तार होता है। बाहर जो सूर्य आदिक भासते हैं वह भी चित्त के भीतर स्थित हैं-जैसे फूल खिलता है उसके भीतर की सुगन्ध बाहर भासती है और वास्तव में न कुछ भीतर है न बाहर है जैसा किंचन होता है तैसा ही चैत्यता से फ़रता है-तैसे ही वही सत्ता जगत्रूप होकर भासती है। जगत् सब आत्मरूप है और न कोई सत्य है, न असत्य एक आत्मसत्ता ज्यों की त्यों स्थित है। जो ज्ञानवान् पुरुष हैं उनको सदा ऐसे ही भासता है। हे रामजी! जिसके हृदय में शान्ति है उसको सब जगत् शान्तिरूप है और जिसका हृदय देहाभिमान में स्थित है सो नाश होता है और भय पाता है किसी ओर से उसको शान्ति नहीं प्राप्त होती। वह स्वर्ग, पृथ्वी, लोक, पाताल, वायु, आकाश, पर्वत, नदियाँ देश, काल सबको प्रलयकाल की अग्निवत् जलता देखता है। जिसके हृदय में ताप होता है उसको सब जगत् तपता भासता है पर आत्मज्ञानी को शान्तरूप भासता है-जैसे अन्धे को सब जगत् तमरूप भासता है और नेत्रोंवाले को सब जगत् प्रकाशरूप भासता है। हे रामजी! जिस पुरुष को आत्मपद की प्रतीत हुई है और इन्द्रियों से कर्म भी करता है