पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/७१३

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उपशम प्रकरण।

है तब ताप भी निवृत्त हो जाता है। जैसे शरत्काल के आये से कुहिरा नष्ट हो जाता है तैसे ही विचार किये से मननभाव नष्ट हो जाता है। विचारो कि मैं कौन हूँ, इन्द्रियाँ क्या हैं, जगत् क्या है और जन्म-मरण किसको कहते हैं? इस विचार से जब तुम अपने स्वभाव में स्थित होगे तब तुमको हर्ष, शोक, क्रोध और राग-द्वेष चलायमान न कर सकेगा। जैसे वायु से पर्वत चलायमान नहीं होता तैसे ही तुम अचल रहोगे। हे राजन्! जब आत्मबोध होगा तब मन अपने मननभाव को त्याग देगा और तुम सन्ताप से रहित अपने स्वरूप को प्राप्त होगे। जैसे तरङ्गभाव मिटने से जल निर्मल होता है तैसे ही तुम अचल होगे और मनधर्म भी रहेगा परन्तु मध्य से अज्ञान नष्ट हो जावेगा और आत्मसत्ताभाव होगा। जैसे काल वही रहता है परन्तु ऋतु और हो जाती है तैसे ही मन वहाँ होगा परन्तु स्वभाव और हो जावेगा। तेरे नौकर और प्रजा भी साधु हो जावेंगे और तेरी आज्ञा में चलेंगे और तुझको देखकर प्रसन्न होंगे। हे राजन्! जब तुझको विवेकरूपी दीपक से आत्मारूपी मणि मिलेगा तब तेरी बड़ाई सुमेरु और समुद्र और आकाश से भी अधिक होगी। जब तुझको विवेक से आत्मतत्त्व का प्रकाश होगा तब तू संसार की तुच्छ वृत्ति में न डूबेगा। जैसे गोपद के जल में हाथी नहीं डूबता तैसे ही तू राग द्वेष में न डूबेगा। जिसको देह में अभिमान है और चित्त में वासना है और वह तुच्छ संसार की वृत्ति में डूबता है, इससे जितना अनात्मभाव दृश्य है उसका त्याग कर, पीछे जो शेष रहे सो परमतत्त्व आत्मा है। हे राजन्! जो कुछ सत्य वस्तु है उसको हृदय में धरो और जो असत्य है उसको त्याग करो। जैसे जब तक कल्लर को सोनार धोता है तब तक सुवर्ण नहीं निकलता और जब सुवर्ण निकलता है तब धोने का त्याग करता है, तैसे ही तब तक आत्मविचार कर्तव्य है जब तक आत्मा का साक्षात्कार नहीं हुआ। जब आत्मतत्त्व का साक्षात्कार होता है तब विचार से प्रयोजन नहीं रहता। हे राजन्! सबमें, सब प्रकार, सब काल, सब आत्मा की भावना करो अथवा जितना दृश्यभाव है सो सब न्याय करो तो जो शेष रहेगा सो तुमको भासि आवेगा। जब