पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/७१४

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योगवाशिष्ठ।

तक सब दृश्य का त्याग न करोगे तब तक आत्मपद का लाभ न होगा। सर्व दृश्य के त्याग से आत्मपद भासेगा। हे राजन! जब किसी वस्तु के पाने का यत्न करता है तो और का त्यागकर उसी का यत्न करिये तो प्राप्त होता है तो आत्मतत्त्व अनन्य हुए बिना कैसे प्राप्त होगा। जब अपना सम्पूर्ण यत्न एक ही ओर लगाता है तब उस पद की प्राप्ति होती है। इससे आत्मपद के पाने के लिये सब दृश्य को त्यागकर सबके त्याग किये से जो शेष रहे सो परमपद है। हे राजन्! सबके त्याग किये से जो सत्ता अधिष्ठान रहेगा सो तुझको आत्मभाव से प्राप्त होगा।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे उपशमप्रकरणे सुरधवृत्तान्तमाण्डवोपदेशोनाम
त्रिपञ्चाशत्तमस्सर्गः ॥ ५३ ॥

वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! इस प्रकार कहकर जब माण्डवमुनि अपने स्थान को गये तब सुरध राजा एकान्त में बैठकर विचार करने लगा कि मैं कौन हूँ? न मैं सुमेरु हूँ, न मेरा सुमेरु है, न मैं जगत् हूँ, न मेरा जगत् है, न मैं पृथ्वी हूँ, न मेरी पृथ्वी है, न मैं क्रान्तमण्डल हूँ और न मेरा कान्तमण्डल है, क्योंकि यह अपने भाव में स्थित है, मेरे भाव से तो नहीं। जो मैं न होऊँ तो भी यह ज्यों का त्यों स्थित है तो यह मेरे कैसे होवे और मैं इनका कैसे होऊँ? न मैं नगर हूँ और न मेरा नगर है। हाथी, घोड़ा, मन्दिर, धन, स्त्री पुत्रादिक जो कुछ पदार्थ हैं सो न मेरे हैं और न मैं इनका हूँ। इनमें आसक्त होना वृथा है, इनमें मेरा कुछ सम्बन्ध नहीं। जितने भागों के समूह हैं ये न मैं हूँ, और न ये मेरे हैं। नौकर, भृत्य और कलत्र सब अपने भाव से सिद्ध हैं, मेरा इनसे सम्बन्ध कुछ नहीं। न मैं राजा हूँ, न मेरा राज्य है। मैं एकाएकी शरीरमात्र और इनमें मैं ममत्व करता हूँ सो वृथा है। शरीर में जो मैं अहं करता हूँ सो भी व्यर्थ है, क्योंकि हाथ-पाँव आदिक का स्वरूप भिन्न है, न यह मैं हूँ और न ये मेरे हैं। इनमें मेरा शब्द कुछ नहीं। यह रक्त, मांस, हाड़ आदिकरूप है सो मैं नहीं। यह जड़ है और मैं चेतन हूँ, इनके साथ मेरा कैसे सम्बन्ध हो। जैसे जल का स्पर्श कमल को नहीं होता तैसे ही इनका स्पर्श मुझको नहीं। न मैं कर्मइन्द्रियाँ हूँ और न मेरी कर्म-