पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/७१५

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उपशम प्रकरण।

इन्द्रियाँ हैं। यह जड़ है, मैं चैतन्य हूँ। न मैं ज्ञानइन्द्रिय हूँ, न मेरी ज्ञान इन्द्रियाँ हैं। इनसे परे मन है सो भी मैं नहीं, क्योंकि यह जड़ है। मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार ये सब अनात्मरूप है। मेरा इनके साथ अविद्या से सम्बन्ध है। भ्रान्ति से मैं इनको अपना स्वरूप जानता था पर यह सब भूतों का कार्य है। इनके पीछे चेतन जीव है जो चेतन दृश्य को चेतनेवाला है सो चेतन चेतना भी मैं नहीं। इन सबमें शेष अचेत चिन्मात्रसत्ता मेरा स्वरूप है। बड़ा कल्याण हुआ जो मैंने अपना आप पाया। अब मैं जागा हूँ। बड़ा आश्चर्य है कि मैं वृथा देहादिक को अपना जानकर शोक और मोह को प्राप्त होता था। मैं तो एक निर्वि-कल्प चेतन और अनन्त आत्मा सबमें व्याप रहा हूँ और ब्रह्मरूप आत्मा हूँ। इन्द्रियों से आदि जितने भूतगण हैं उन सबका मैं आत्मा हूँ। यह भगवान् आत्मा सबके भीतर व्यापा है। जैसे सबके भीतर पाँचतत्त्व होते हैं तैसे ही यह चेतन रूप सर्व भाव को भर रहा है और सर्व भावों में व्याप रहा है। भैरवरूप और उदय अस्त भाव आदि विकारों से वह रहित है। ब्रह्मा से यदि तृण पर्यन्त सबका आत्मा यही है। सब प्रकाशों का प्रकाशनेवाला दीपक वही है और संसाररूपी मोतियों के पिरोनेवाला तागा और सबका कारण कार्य यही है। वह साकार से रहित है और शरीरादिक सब उसी की सत्ता से उपलब्ध होते हैं। शरीररूपी रथ इसी से चलता है वास्तव में शरीरादिक कुछ वस्तु नहीं। यह जगत् चित्तरूपी नट की नृत्यलीलारूप है। चित में जगत् करता है वास्तव में और कुछ वस्तु नहीं। बड़ा कष्ट कि मैं वृथा संग्रह असंग्रह की चिन्ता करता था। यह गुणों का प्रवाह है इसमें मैं क्यों शोकवाद होता था? बड़ा आश्चर्य है कि असत्यभ्रम सत्य हो मुझको दीखता था। अब मैं निश्चय करके सम प्रबोध हुआ हूँ और दुर्दृष्टि मेरी दूर हुई है। दृष्टि की जो अलख दृष्टि है सो अब मैंने देखी है और जो कुछ पाने योग्य था सो मैंने पाया है और अचैत्य चिन्मात्र को प्राप्त हुआ हूँ। जो कुछ दृश्य है उसको मैं स्वरूप से देखता हूँ और अहं मम दुःख मेरा नष्ट हुआ है। मैं चिदानन्द पूर्ण और नित्य शुद्ध अनन्त आत्मा अपने आप में स्थित हूँ। ग्रहण क्या और त्याग