पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/७१८

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योगवाशिष्ठ।

पृथ्वी का भूषण होकर लोगों में विचरो। इतना सुन रामजी ने पूछा, हे मुनीश्वर! एक समाधि किसको कहते हैं और कैसे होती है सो कहो जिसमें मेरा चित्त जो फुरता है सो स्थित हो। जैसे वायु से मोर की पुच्छ हिलती है तैसे ही चञ्चलरूप चित्त सदा फुरता है। वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! जनसुरध प्रबुद्ध हुआ था तब उसका संवाद पर्णादि राजऋषि के साथ हुआ था वही अद्भुत समाधि है, उसको सुनकर विचारोगे तो तुम भी एक समाधिमान् होगे। उसने परस्पर मिलकर जो चर्चा की थी सो सुनो। हे रामजी! पारसदेश का राजा महा वीर्यवान् था। उसका परघ नाम था और वह सरघ का मित्र था। जैसे नन्दनवन में कामदेव और बसन्तऋतु का मित्रभाव होता है तैसे ही सुरघ और परघ का मित्रभाव था। एककाल में परघ के देश में प्रलयकाल बिना प्रलयकाल की नाई समय हुआ और उससे सब जीव दुःख पाने लगे। निदान प्रजा की पापबुद्धि का फल धान लगा और महादुर्भिक्ष पड़ा। कोई क्षुधा से मृतक हुए, कोई अग्नि से जल मरे और बहुतेरे झगड़ा करके मृतक हुए। प्रजा बहुत दुःख को प्राप्त हुई पर राजा को कुछ दुःख प्राप्त न हुआ। जब प्रजा ने बहुत दुःख पाया और राजा ने प्रजा को दुःखी देखा पर प्रजा का दुःख निवृत्त न कर सका तो प्रजा अपने अपने कुटुम्ब को त्यागकर चली गई-जैसे बन में अग्नि लगने से पक्षी त्याग जाते हैं। तब राजा एक पहाड़ की कन्दरा में तप करने लगा और ऐसा तप करने लगा जैसा कि जिनेन्द्र ने किया था। वह उस कन्दरा में फल न पाये केवल सूखे पत्ते लेकर खावे-जैसे अग्नि सूखे पत्तों को भक्षण करती है उससे उसका नाम पर्णाद हुआ। निदान चित्त की वृत्ति को आत्मपद में लगाकर सहस्रवर्ष पर्यन्त उसने तप किया तब अभ्यास के बल से चित्त स्थित हुए से केवल ज्ञानरूप आत्मतत्त्व हृदय की निर्मलता से प्रकाश आया और सब तप्तता मिट गई। तब वह राग द्वेष से रहित हो निष्क्रिय-आत्मदर्शी-जीवन्मुक्त होकर बिचरने लगा। जैसे सरोवरों में कमलों के निकट भँवरा हंसों के साथ जा मिलता है तैसे ही सिद्धों के साथ राजा जा मिले। ऐसे फिरता फिरता वह क्रान्त- देश में सुरघ के स्थानों को गया। सुरघ पूर्वमित्र को देखकर उठ खड़ा