पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/७२

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योगवाशिष्ठ।

हो गये हैं तो हम सरीखों की क्या वर्ता है? सब नाश होते हैं तो हमें भी घड़ी पल में चला जाना है। हे मुनीश्वर! ये पदार्थ बड़े चञ्चलरूप हैं; एकरस कदाचित् नहीं रहते। एक क्षण में कुछ हो जाते और दूसरे क्षण में कुछ हो जाते हैं। एक क्षण में दरिद्री हो जाते और दूसरे क्षण में सम्पदावान् हो जाते हैं। एक क्षण में जीते दृष्टि आते हैं और दूसरे क्षण में मर जाते हैं, और एक क्षण में फिर जी उठते हैं। इस संसार की स्थिरता कभी नहीं होती। ज्ञानवान् इसकी आस्था नहीं करते। एकक्षण में समुद्र के प्रवाह के ठिकाने मरुस्थल हो जाते हैं और मरुस्थल में जल के प्रवाह हो जाते हैं। हे मुनीश्वर! इस जगत् का आभास स्थिर नहीं रहता। जैसे बालक का चित्त स्थिर नहीं रहता वैसे ही जगत् का पदार्थ एक भी स्थिर नहीं रहता। जैसे नट नाना प्रकार के स्वाँग धरता है वैसे ही जगत् के पदार्थ और लक्ष्मी एकरस नहीं रहती। कभी पुरुष स्त्री हो जाता और कभी स्त्री पुरुष हो जाती है, कभी मनुष्य पशु हो जाता और कभी पशु मनुष्य हो जाता है, स्थावर का जंगम हो जाता है और जंगम का स्थावर हो जाता है, मनुष्य का देवता हो जाता और देवता का मनुष्य हो जाता है। इसी प्रकार घटीयन्त्र की नाई जगत् की लक्ष्मी स्थिर नहीं रहती; कभी ऊर्ध्व को जाती है और कभी अधः को जाती है, स्थिर कभी नहीं रहती, सदा भटकती रहती है। हे मुनीश्वर! जितने पदार्थ दृष्टि आते हैं वे सब नष्ट हो जावेंगे किसी भाँति स्थिर न रहेंगे। ये सब नदियाँ बड़वाग्नि में लय हो जावेंगी और जितने पदार्थ हैं वे सब अभावरूपी वड़वाग्नि को प्राप्त होंगे। बड़े बड़े बलिष्ठ भी मेरे देखते ही देखते लीन हो गये हैं जो बड़े बड़े सुन्दर स्थान थे वे शून्य हो गये और सुन्दर ताल और बगीचे जो मनुष्यों से परिपूर्ण थे शून्य हो गये। मरुस्थल की भूमि सुन्दर हो गई और घट के पट हो गये हैं। वर के शाप हो जाते हैं और शाप के वर हो जाते हैं। इसी प्रकार हे विप्र! जो जगत् दृष्टि आता है वह कभी सम्पत्तिमान् और कभी आपत्तिमान् दृष्टि में आता है और महाचपल है। हे मुनीश्वर! ऐसे सब अस्थिरूप पदार्थों का विचार बिना मैं कैसे आश्रय करूँ और किसकी इच्छा करूँ सब तो नाशरूप हैं? ये जो सूर्य प्रकाश