पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/७२०

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योगवाशिष्ठ।

हुआ तब दूर से दूर जा पड़े, तुम कहाँ थे और हम कहाँ थे अब फिर इकट्ठे हुए हैं। देव की नीति आश्चर्यरूप है। तुमने जो मुझसे कुशल पूल्बी सो तुम्हारा आना ही पुण्य है उससे मैं परम पावन हुआ हूँ और तुम्हारे दर्शन से सब पाप नष्ट हो जाते हैं। आज हमारे पुण्य का फल लगा है जो तुम्हारा दर्शन हुआ और जो कुछ यश सम्पदा है, वह सब ध्यान प्राप्त हुई है। हे भगवन्! सन्तों का आना मधुर अमृत की नाई है। जैसे अमृत झरने से निकलता है तैसे ही तुम्हारे दर्शन और वचनों से परमाथरूपी अमृत स्रवता है। जिसको पाकर जीव निर्भयता को प्राप्त होता है। सन्तों का मिलना परमपद के तुल्य है इसलिये हम परम शुद्धता को प्राप्त हुए हैं।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे उपशमप्रकरणे सुरघपरघसमागमवर्णन-
न्नामषट्पञ्चाशत्तमस्सर्गः ॥ ५६ ॥

वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! इस प्रकार जब वे पूर्व वृत्तान्त कह रहे थे तब फिर परघ बोले, हे राजन्! समाहित चित्त इस जगज्जाल में जो-जो कर्म करता है सो सुखरूप होता है। संकल्प से रहित जो परम विश्राम और परम उपशम समाधि है उसमें अब तुम स्थित हुए हो। सुरघ बोले, हे भगवन्! तुम्हीं कहो कि सब संकल्पों से रहित परम उपशम समाधि किसको कहते हैं? और यदि तुम मुझको पूछो तो सुनो। जो ज्ञानवान् महात्मा पुरुष हैं वे चाहे तूष्णीम् रहें अथवा व्यवहार करें असमाहितचित कदाचित् नहीं होते। हे साधो! जिनका नित्य प्रबुद्ध चित्त है जगत् के कार्य भी करते हैं पर आत्मतत्त्व में स्थित हैं तो वह सर्वदा समाधि में स्थित हैं और जो पद्मासन बाँधकर बैठते हैं और बह्माअञ्जली हाथ में रखते हैं पर चित्त आत्मपद में स्थित नहीं होता और विश्रान्ति नहीं पाते तो उनको समाधि कहाँ? वह समाधि नहीं कहाती। हे भगवन्! परमार्थं तत्त्वबोध आशारूपी सब तृणों के जलानेवाली अग्नि है। ऐसी निराशरूपी जो समाधि वही समाधि है। तूष्णीम् होने का नाम समाधि नहीं है। हे साधो! जिसका चित्त समाहित, नित्यतृप्त और सदा शान्तरूप है और जो यथा भूतार्थ है अर्थात् जिसे ज्यों का त्यों ज्ञान हुआ है और उसमें निश्चय है वह समाधि कहाती है, तूष्णीम होने का नाम