पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/७२१

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उपशम प्रकरण।

समाधि नहीं है जिसके हृदय में संसाररूप सत्यता का क्षोभ नहीं है, जो निरहंकार है और अनउदय ही उदय है वह पुरुष समाधि में कहाता है। ऐसा जो बुद्धिमान है वह सुमेरु से भी अधिक स्थित है। हे साधो! जो पुरुष निश्चिन्त है, जिसका ग्रहण और त्याग बुद्धि निवृत्त हुई है, जिसे पूर्ण आत्मतत्त्व ही भासता है वह व्यवहार भी करता दृष्ट आता है तो भी उसकी समाधि है। जिसका चित्त एक क्षण भी आत्मतत्त्व में स्थित होता है उसकी अत्यन्त समाधि है और क्षण-क्षण बढ़ती जाती है निवृत्त नहीं होती। जैसे अमृत के पान किये से उसकी तृष्णा बढ़ती जाती है तैसे ही एक क्षण को भी समाधि बढ़ती ही जाती है। जैसे सूर्य के उदय हुए सब किसी को दिन भासता है तैसे ही ज्ञानवान् को सब आत्मतत्त्व भासता है-कदाचित् भिन्न नहीं भासता। जैसे नदी का प्रवाह किसी से रोका नहीं जाता तैसे ही ज्ञानवान् की आत्मदृष्टि किसी से रोकी नहीं जाती और जैसे काल की गति काल को एक क्षण भी विस्मरण नहीं होती तैसे ही ज्ञानवान् की आत्मदृष्टि विस्मरण नहीं होती। जैसे चलने से ठहरे पवन को अपना पवनभाव विस्मरण नहीं होता तैसे ही ज्ञानवान् को चिन्मात्र तत्त्व का विस्मरण नहीं होता और जैसे सत् शब्द बिना कोई पदार्थ सिद्ध नहीं होता तैसे ही ज्ञानवान् को आत्मा के सिवाय कोई पदार्थ नहीं भासता। जिस ओर ज्ञानवान् की दृष्टि जाती है उसे वहाँ अपना आप ही भासता है-जैसे दर्पण के मन्दिर में सर्व ओर अपना ही मुख भासता है। जैसे उष्णता बिना अग्नि नहीं, शीतलता बिना बरफ नहीं और श्यामता बिना काजर नहीं होता तैसे आत्मा बिना जगत् नहीं होता। हे साधो! जिसको आत्मा से भिन्न पदार्थ कोई नहीं भासता उसको उत्थान कैसे हो? मैं सर्वदा बोधरूप, निर्मल और सर्वदा सर्वात्मा समाहितचित हूँ, इससे उत्थान मुझको कदाचित् नहीं होगा। आत्मा से भिन्न मुझको कोई नहीं भासता सब प्रकार आत्मतत्त्व ही मुझको भासता है। हे साधो! आत्मतत्व सर्वदा जानने योग्य है। सर्वदा और सब प्रकार आत्मा स्थित है, फिर समाधि और उत्थान कैसे हो? जिसको कार्य कारण में